चतुरशीत्यधिकद्विशततम (284) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरशीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 60-77 का हिन्दी अनुवाद
(दक्ष बोले)- देव देवेश्वर! आपको नमस्कार है। आप देव वैरी दानवों की सेना के संहारक और देवराज इन्द्र की शक्ति को भी स्तम्भित करने वाले हैं। देवता और दानव-सब ने आपकी पूजा की है। आप सहस्रों नेत्रों से युक्त होने के कारण सहस्राक्ष हैं। आपकी इन्द्रियाँ सबसे विलक्षण अर्थात् परोक्ष विषय को भी प्रत्यक्ष करने वाली हैं, इसलिये आपको विरूपाक्ष कहते हैं। आप त्रिनेत्रधारी होने के कारण त्र्यक्ष कहलाते हैं। यक्षराज कुबेर के भी आप प्रिय (इष्टदेव) हैं। आपके सब ओर हाथ और पैर हैं तथा सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं। आपके कान भी सब ओर हैं। संसार में जो कुछ है, सबको व्याप्त करके आप स्थित हैं। शंकुकर्ण, महाकर्ण, कुम्भकर्ण, अर्णवालय, गजेन्द्रकर्ण, गोकर्ण और पाणिकर्ण- ये सात पार्षद आपके ही स्वरूप हैं। इन सबके रूप में आपको नमस्कार है। आपके सैकड़ों उदर, सैकड़ों आवर्त और सैकड़ों जिह्वाएँ होने के कारण आप क्रमशः शतोदर, शतावर्त और शतजिह्व नाम से प्रसिद्ध हैं। आपको प्रणाम हैं। गायत्री मन्त्र का जप करने वाले द्विज आपकी ही महिमा का गान करते हैं और सूर्योपासक सूर्य के रूप में आपकी ही ब्रह्मा, शतक्रतु इन्द्र और आकाश के समान सर्वोच्च पद मानते हैं। समुद्र और आकाश के समान अपार, अनन्त रूप धारण करने वाले महामूर्तिधारी महेश्वर! जैसे गोशाला में गौएँ निवास करती हैं, उसी प्रकार आपकी भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा एवं यजमानरूप आठ प्रकार की मूर्तियों में सम्पूर्ण देवताओं का निवास है। मैं आपके शरीर में सोम, अग्नि, वरुण, सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा तथा बृहस्पति को भी देख रहा हूँ। आप ही कारण, कार्य, सूर्य क्रिया (प्रयत्न) और करण हैं। सत् और असत् पदार्थों की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान भी आप ही हैं। आप सबके उद्भव का स्थान होने से भव, संहार करने के कारण शर्व, 'रू’ अर्थात पाप एवं दु:ख को दूर करने से रुद्र, वरदाता होने से वरद तथा पशुओं (जीवों) के पालक होने के कारण सदा पशुपति कहलाते हैं। आपने ही अन्धकासुर का वध किया है, इसलिये आपका नाम अन्धकघाती है। आपको बारंबार नमस्कार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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