महाभारत विराट पर्व अध्याय 68 श्लोक 37-50

अष्टषष्टितम (68) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 37-50 का हिन्दी अनुवाद

तब महात्मा राजा युधिष्ठिर ने विराट से कहा- ‘बृहन्नला जिसका सारथि हो, वह युद्ध में कैसे नहीं जीतेगा?’ यह सुनते ही मत्स्य नरेश कुपित हो उठे और पाण्डु नन्दन से बोले- ‘अधम ब्राह्मण! तू मेरे पुत्र के समान एक हिजड़े की प्रशंसा करता है। ‘क्या कहना चाहिये और क्या नहीं, इसका तुझे ज्ञान नहीं है। निश्चय ही तू अपनी बातों से मेरा अपमान कर रहा है। भला मेरा पुत्र भीष्म-द्रोण आदि समस्त वीरों को क्यों नहीं जीत लेगा ? ब्रह्मन्! मित्र होने के नाते ही मैं तुम्हारे इस अपराध को क्षमा करता हूँ। यदि जीने की इच्छा हो, तो फिर ऐसी बात न कहना’।

युधिष्ठिर बोले- जहाँ द्रोणाचार्य, भीष्म, अश्वत्थामा, कर्ण, कृपाचार्य, राजा दुर्योधन तथा अन्य महारथी उपसिथत हों, वहाँ बृहन्नला के सिवा दूसरा कौन पुरुष, चाहे वह देवताओं से घिरा हुआ साक्षात देवराज इन्द्र ही क्यों न हो, उन सब संगठित वीरों का सामना कर सकता है। बाहुबल में जिसकी समानता करने वाला न कोई हुआ है और न होगा ही, युद्ध का अवसर आया देखकर जिसे अत्यन्त हर्ष होता है, जिसने युद्ध में एकत्र हुए देवता, असुर और मनुष्य- सबको जीत लिया है, वैसे बृहन्नला जैसे सहायक के होने पर राजकुमार उत्तर विजयी क्यों न होंगे ?

विराट ने कहा - कंक! मैंने बहुत बार मना किया, तो भी तू अपनी जबान नहीं बंद कर रहा है। सच है, यदि शासन करने वाला राजा न हो, तो कोई भी धर्म का आचरण नहीं कर सकता।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इतना कहकर क्रोध में भरे हुए राजा विराट ने वह पासा युधिष्ठिर के मुख पर जोर से दे मारा तथा रोष पूर्वक डाँटते हुए उनसे कहा- ‘फिर कभी ऐसी बात न कहना’। पासे का आघात जोर से लगा था, अतः उनकी नाक से रक्त की धारा बह चली। किंतु धर्मात्मा युधिष्ठिर ने उस रक्त को पृथ्वी पर गिरने से पहले ही अपने दोनों हाथों में रोक लिया और पास ही खड़ी हुई द्रौपदी की ओर देखा। द्रौपदी अपने स्वामी के मन के अधीन रहने वाली और उनकी अनुगामिनी थी। उस सती-साध्वी देवी ने उनका अभिप्राय समझ लिया; अतः जल से भरा हुआ सुवर्णमय पात्र ले आकर युधिष्ठिर की नाक से जो रक्त बहता था, वह उसमें ले लिया। इसी समय राजकुमार उत्तर बड़े हर्ष के साथ स्वच्छन्दता पूर्वक नगर में आये। मार्ग में उनके ऊपर उत्तम गन्ध और भाँति-भाँति के पुष्पहार बरसाये जा रहे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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