महाभारत वन पर्व अध्याय 33 श्लोक 31-46

त्रयस्त्रिंश (33) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

Prev.png

महाभारत: वन पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 31-46 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! धन की इच्छा रखने वाला पुरुष महान् धर्म की अभिलाषा रखता है और कामार्थी मनुष्य धन चाहता है, जैसे धर्म से धन की और धन से काम की इच्छा करता है, उस प्रकार वह काम से किसी दूसरी वस्तु की इच्छा नहीं करता है। जैसे फल उपभोग में आकर कृतार्थ हो जाता है, उससे दूसरा फल नहीं प्राप्त हो सकता तथा जिस प्रकार काष्ठ से भस्म बन सकता है; इसी तरह बुद्धिमान् पुरुष एक काम से किसी दूसरे काम की सिद्धि नहीं मानते, क्योंकि वह साधन नहीं, फल ही है। राजन्! जैसे पक्षियों को मारने वाला व्याध इन पक्षियों को मारता है, यह विशेष प्रकार ही हिंसा ही अधर्म का स्वरूप है (अतः वह हिंसक सबके लिये वध्य है)। वैसे ही जो खोटी बुद्धि वाला मनुष्य काम और लोभ के वंशीभूत होकर धर्म के स्वरूप को नहीं जानता, वह इहलोक और परलोक में भी सब प्राणियों का वध्य होता है।

राजन्! आपको यह अच्छी तरह ज्ञात है कि धन से ही भोग्य-साम्रगी का संग्रह होता है और धन के द्वारा जो बहुत-से कार्य सिद्ध होते हैं, उसे भी आप जानते हैं। उस धन का अभाव होने पर अथवा प्राप्त हुए धन का नाश होने पर अथवा स्त्री आदि धन के जरा-जीर्ण एवं मृत्यु-ग्रस्त होने पर मनुष्य की जो दशा होती है, उसी को सब लोग अनर्थ मानते हैं। वही इस समय हम लोगों को भी प्राप्त हुआ है। पांचों ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धि की अपने विषयों में प्रवृत्त होने के समय जो प्रीति होती है, वही मेरी समझ में काम है। वह कर्मों का उत्तम फल है। इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम तीनों को पृथक्-पृथक् समझकर मनुष्य केवल धर्म, केवल अर्थ अथवा केवल काम के ही सेवन में तत्पर न रहे। उन सबका सदा इस प्रकार सेवन करे, जिससे इनमें विरोध न हो। इस विषय शास्त्रों का यह विधान है कि दिन के पूर्वभाग में धर्म का, दूसरे भाग में अर्थ का और अंतिम भाग में काम का सेवन करे। इसी प्रकार अवस्था क्रम में शास्त्र विधान यह है कि आयु के पूर्वभाग में (युवावस्था) काम का, मध्यभाग (प्रौढ़ अवस्था) में धन का तथा अंतिम भाग (वृद्ध-अवस्था) में धर्म का पालन करे। वक्ताओं में श्रेष्ठ! उचित काल का ज्ञान रखने वाला विद्वान् पुरुष धर्म, अर्थ और काम तीनों का यथावत् विभाग करके उपयुक्त समय पर उन सबका सेवन करे।

कुरुनन्दन! निरतिशय सुख की इच्छा रखने वाले मुमुक्षुओं के लिये यह मोक्ष ही परम कल्याणप्रद है। राजन्! इसी प्रकार लौकिक सुख की इच्छा वालों के लिये धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग की प्राप्ति ही परम श्रेय है। अतः महाराज! भक्ति और योगसहित ज्ञान का आश्रय लेकर आप शीघ्र ही या तो मोक्ष ही प्राप्ति कर लीजिये अथवा धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग की प्राप्ति के उपाय का अवलम्बन कीजिये। जो इन दोनों के बीच में रहता है, उसका जीवन तो आर्त मनुष्य के समान दुःखमय ही है। मुझे मालूम है कि आपने सदा धर्म का ही आचरण किया है, इस बात को जानते हुए भी आपके हितैषी, सगे-सम्बन्धी आपको (धर्मयुक्त) कर्म एवं पुरुषार्थ के लिये ही प्रेरित करते हैं। महाराज! इहलोक और परलोक में भी दान, यज्ञ, संतों का आदर, वेदों का स्वाध्याय और सरलता आदि ही उत्तम एवं प्रबल धर्म माने गये हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः