महाभारत वन पर्व अध्याय 33 श्लोक 47-63

त्रयस्त्रिंश (33) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 47-63 का हिन्दी अनुवाद


पुरुषसिंह राजन्! यद्यपि मनुष्य के दूसरे सभी गुण मौजूद हों तो भी यह यज्ञ आदि रूप धर्म धनहीन पुरुष के द्वारा नहीं सम्पादित किया जा सकता। महाराज! इस जगत् का मूल कारण धर्म ही है। इस जगत् में धर्म से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। उस धर्म का अनुष्ठान भी महान् धन से ही हो सकता है। राजन्! भीख मांगने से, कायरता दिखाने से अथवा केवल धर्म में ही मन लगाये रहने से धन की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। नरश्रेष्ठ! ब्राह्मण जिस याचना के द्वारा कार्यसिद्धि कर लेता है वह तो आप कर नहीं सकते, क्योंकि क्षत्रिय के लिये उसका निषेध है। अतः आप अपने तेज के द्वारा ही धन पाने का प्रयत्न कीजिये। क्षत्रिय के लिये न तो भीख मांगने का विधान है और न तो वैश्य और शूद्र की जीविका करने का ही। उसके लिये तो बल और उत्साह ही विशेष धर्म हैं।

पार्थ! अपने धर्म का आश्रय लीजिये, प्राप्त हुए शत्रुओं का वध कीजिये। मेरे तथा अर्जुन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्ररूपी जंगल को काट डालिये। मनीषी विद्वान् दानशीलता को ही धर्म कहते हैं, अतः आप उस दानशीलता को ही प्राप्त कीजिये। आपको इस दयनीय अवस्था में नहीं रहना चाहिये। महाराज! आप सनातन धर्मों को जानते हैं, आप कठोर कर्म करने वाले क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए हैं, जिससे सब लोग भयभीत रहते हैं, अतः अपने स्वरूप और कर्तव्य की ओर ध्यान दीजिये। तब आप राज्य प्राप्त कर लेंगे, उस समय प्रजापालनरूप धर्म से आपको जिस पुण्य फल की प्राप्ति होगी, वह आपके लिये गर्हित नहीं होगा। महाराज! विघाता ने आप जैसे क्षत्रिय का यही सनतान धर्म नियत किया है। पार्थ! उस धर्म के हीन होने पर तो संग्राम में आप उपहास के पात्र हो जायेंगे। मनुष्यों का अपने धर्म से भ्रष्ट होना कुछ प्रशंसा की बात नहीं है। कुरूनन्दन! अपने हृदय को क्षत्रियोचित उत्साह से भरकर मन की इस शिथिलता को दूर करके पराक्रम का आश्रय ले आप एक धुरन्धर वीर पुरुष की भाँति युद्ध का भार वहन कीजिये।

महाराज! केवल धर्म में ही लगे रहने वाले किसी भी नरेश ने आज तक न तो कभी पृथ्वी पर विजय पायी है और न ऐश्वर्य तथा लक्ष्मी को ही प्राप्त किया है। जैसे बहेलिया लुब्ध हृदय वाले छोटे-छोटे मृगों को कुछ खाने की वस्तुओं का लोभ देकर छल से उन्हें पकड़ लेता है, उसी प्रकार नीतिज्ञ राजा शत्रुओं के प्रति कूटनीति का प्रयोग करके उनसे राज्य को प्राप्त कर लेता है। नृपश्रेष्ठ! आप जानते हैं कि असुरगण देवताओं के बड़े भाई हैं, उनसे पहले उत्पन्न हुए हैं और सब प्रकार से समृद्धिशाली हैं तो भी देवताओं ने छल से उन्हें जीत लिया। महाराज! महाबाहो! इस प्रकार बलवान् का ही सब पर अधिकार होता है, यह समझकर आप भी कूटनीति का आश्रय ले अपने शत्रुओं को मार डालिये। युद्ध में अर्जुन के समान कोई धनुर्धर अथवा मेरे समान गदाधारी योद्धा न तो है और न आगे होने की सम्भावना है। पाण्डुनन्दन! अत्यन्त बलवान् पुरुष भी आत्मबल से ही युद्ध करता है, इसलिये आप सावधानीपूर्वक महान् उत्साह और आत्मबल का आश्रय लीजिये।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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