एकत्रिंशदधिकद्विशततम (231) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 43-64 का हिन्दी अनुवाद
विद्वानों द्वारा प्रकाशित सम्पूर्ण विद्याएं भी उन्हीं के साथ थीं। इन्द्र आदि देवता सेना के मुहाने पर उपस्थित हो भगवान शिव के आदेश का पालन करते थे। एक राक्षस ग्रह सेना का झंडा लेकर आगे-आगे चलता था। भगवान रुद्र का सखा यक्षराज पिंगलदेव जो सदा श्मशान में ही (उसकी रक्षा के लिये) निवास करता और सम्पूर्ण जगत् को आनन्द देने वाला था, उस यात्रा में भगवान शिव के साथ था। इन सब के साथ महादेव जी सुखपूर्वक भद्रवट की यात्रा कर रहे थे। वे कभी सेना के आगे रहते और कभी पीछे। उनकी कोई निश्चित गति नही थी। मरणधर्मा मनुष्य इस संसार में सत्कर्मों द्वारा रुद्रदेव की ही पूजा करते हैं। इन्हीं को शिव, ईश, रुद्र और पितामह कहते हैं। लोग नाना प्रकार के भावों से भगवान महेश्वर की पूजा करते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणहितैषी, देवसेनापति कृत्तिकानन्दन स्कन्द भी देवताओं की सेना से घिरे हुए देवेश्वर भगवान शिव के पीछे-पीछे जा रहे थे। तदनन्तर महादेव जी ने कुमार महासेन से यह उत्तम बात कही- ‘बेटा! तुम सदा सावधानी के साथ मारुतस्कन्ध नामक देवताओं के सातवें व्यूह की रक्षा करना’। स्कन्द बोले- प्रभो! मैं सातवें व्यूह मारुतस्कन्ध की अवश्य रक्षा करूँगा। देव! इसके सिवा और भी मेरा जो कुछ कर्तव्य हो, उसके लिये आप शीघ्र आज्ञा दीजिये। रुद्र ने कहा- पुत्र! काम पड़ने पर तुम सदा मुझसे मिलते रहना। मेरे दर्शन से तथा मुझ में भक्ति करने से तुम्हारा परम कल्याण होगा। मार्कण्डेय जी कहते हैं- राजन्! ऐसा कहकर भगवान महेश्वर ने कार्तिकेय को हृदय से लगाकर विदा किया। स्कन्द के विदा होते ही बड़ा भारी उत्पात होने लगा। महाराज! सहसा समस्त देवताओं को मोह में डालता हुआ नक्षत्रों सहित आकाश प्रज्वलित हो उठा। समस्त संसार अत्यन्त मूढ़-सा हो गया। पृथ्वी हिलने लगी। उसमें गड़गड़ाहट पैदा हो गयी। सारा जगत् अन्धकार में मग्न-सा जान पड़ता था। उस समय यह दारुण उत्पात देखकर भगवान शंकर, महाभाग उमा, देवगण तथा महर्षिगण क्षुब्ध हो उठे। जिस समय वे सब लोग मोह-ग्रस्त हो रह थे, उसी समय पर्वतों और मेघमालाओं के समान दैत्यों की विशाल एवं भंयकर सेना दिखायी दी। वह नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। उसके सैनिकों की संख्या गिनी नहीं जा सकती थी। वह भंयकर वाहिनी अनेक प्रकार की बोली बोलती हुई भीषण गर्जना कर रही थी। उसने रणभूमि में आकर देवताओं तथा भगवान शंकर पर धावा बोल दिया। दैत्यों ने देवताओं के सैनिकों पर कई बार बाण वर्षा की। शिलाखण्ड, शतघ्नी (तोप), प्रास, खड्ग, परिघ और गदाओं के लगातार प्रहार हो रहे थे। इन भंयकर अस्त्रों की मार से देवताओं की सारी सेना क्षण भर में (पीठ दिखाकर) भाग चली। सारे सैनिक युद्ध से विमुख दिखाई देते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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