महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 21-26

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 21-26 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 13


प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है[1] और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी बुरी योनियों मे प्रवेश लेने का कारण है।[2] सम्बन्ध- इस प्रकार प्रकृतिस्थ पुरुष के स्वरूप का वर्णन करने के बाद अब जीवात्मा और परमात्मा की एकता करते हुए आत्मा के गुणातीत स्वरूप का वर्णत करते हैं- इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है।[3] वही साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवनरूप से भोक्ता, ब्रह्म आदि का स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है।[4] इस प्रकार पुरुषों और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्त्व से जानता है,[5] वह सब प्रकार के कर्तव्य कर्म करता हुआ भी[6] फिर नहीं जन्मता।[7]

सम्बन्ध- इस प्रकार गुणों के सहित प्रकृति और पुरुष के ज्ञान का महत्त्व सुनकर यह अच्छा हो सकती है कि ऐसा ज्ञान कैसे होता है। इसलिये अब दो श्लोकों द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों के लिये तत्त्वज्ञान के भिन्न-भिन्न साधनों का प्रतिपादन करते हैंं- उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैंं।[8] अन्य कितने ही ज्ञानयोग के द्वारा[9] और दूसरे कितने ही कर्मयोग द्वारा[10] देखते हैं अर्थात प्राप्त करते हैंं। परन्तु इसमें दूसरे, अर्थात जो मन्द बुद्धि वाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्त्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैंं। और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निःसंदेह तर जाते हैंं। सम्बन्ध- इस प्रकार परमात्मा सम्बन्धी तत्त्वज्ञान के भिन्न-भिन्न साधनों का प्रतिपादन करके अब तीसरें श्लोक मे जो ‘यादक्’ पद से क्षेत्र के स्वभाव को सुनने के लिये कहा था, उसके अनुसार भगवान दो श्लोकों द्वारा उस क्षेत्र को उत्पत्ति-विनाशशील बतलाकर उसके स्वभाव का वर्णन करते हुए आत्मा के यर्थाथ तत्त्वों को जानने वाले की प्रशंसा करते हैंं। हे अर्जुन! जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान।[11]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रकृति बने हुए स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीनों शरीरों में से किसी भी शरीर के साथ जब तक इस जीवात्मा- का सम्बन्ध रहता है, तब तक वह प्रकृति में स्थित (प्रकृतिस्थ) कहलाता है।, अतएव जब तक आत्मा प्रकृति के साथ सम्बन्ध रहता है, तभी तक वह प्रकृतिजनित गुणों का भोक्ता हैं।
  2. मनुष्य से लेकर ऊँची जितनी भी देवादि योनियाँ हैं, सब सत्-योनियाँ हैं और मनुष्य से नीची जितनी भी पशु, पक्षी, वृक्ष, लता आदि योनियाँ हैं, वे असत् हैं। सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के साथ जो जीव का अनादिसिद्ध सम्बन्ध है एवं उनके कार्य रूप सांसारिक पदार्थों में जो आसक्ति होगी, उसकी वैसी ही वासना होगी, वासना के अनुसार ही अन्तकाल में स्मृति होगी और उसी के अनुसार उसे पुनजन्म प्राप्त होगा। इसीलिये यहाँ अच्छी-बुरी योनियों की प्राप्ति में गुणों के संग को कारण बतलाया गया है।
  3. प्रकृति जनित शरीरों की उपाधि से जो चेतन आत्मा अज्ञान के कारण जीवभाव को प्राप्त-सा प्रतीत होता है, वह क्षेत्रज्ञ वास्तव में इस प्रकृति से सर्वथा अतीत परमात्मा ही हैं, क्योंकि उस परब्रह्म परमात्मा में और क्षेत्रज्ञ में वस्तुतः किसी प्रकार का भेद नहीं है, केवल शरीर रूप उपाधि से ही भेद की प्रतीति हो रही है।
  4. इस कथन से इस बात का प्रतिवादन किया गया है कि भिन्न-भिन्न निमित्तों से पर ब्रह्म भिन्न- भिन्न नामों से पुकारा जाता है। वस्तुदृष्टि से ब्रह्म में किसी प्रकार का भेद नहीं हैं।
  5. जितने भी पृथक-पृथक क्षेत्रज्ञों की प्रतीति होती है, सब उस एक परब्रहा परमात्मा के ही अभिन्न स्वरूप हैं; प्रकृति के संग उनमें भिन्नता-सी प्रतीत होती है। वस्तुतः कोई भेद नहीं है। और वह परमात्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और अविनाशी तथा प्रकृति से सर्वथा अतीत है, इन बातों को संशयरहित यथार्थ समझ लेना एवं एकीभाव से उस सच्चिदानन्दघन नित्य स्थित हो जाना ही ‘पुरुष तत्त्व से जानना’ है। तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं, यह समस्त विश्व प्रकृति का ही पसारा है और वह नाशवान, जड़, क्षणभंगुर और अनित्य है- इस रहस्य को समझ लेना ही गुणों के सहित प्रकृति को तत्त्व से जानना है।
  6. वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र किसी भी वर्ण एवं ब्रह्मचर्यादि किसी भी आश्रम में रहता हुआ तथा उन-उन वर्णाश्रमों के लिये शास्त्र में विधान किये हुए समस्त कर्मों को यथायोग्य करता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। यहाँ ‘सर्वथा वर्तमानः’ का अर्थ निषिद्ध कर्म करता हुआ नहीं समझना चाहिये; क्योंकि आत्मतत्त्व को जानने वाले ज्ञानी में काम- क्रोधादि दोषों का सर्वथा अभाव हो जाने के कारण (गीता 5:26) उसके द्वारा निषिद्ध कर्म का बनना सम्भव नहीं है। इसीलिये इसका आचरण संसार में प्रमाणरूप माने जाते हैंं। (गीता 3:21) पापों में मनुष्य की प्रवृति काम-क्रोधादि अवगुणों के कारण ही होती है; अर्जुन के पूछने पर भगवान तीसरे अध्याय के सैतीसवें श्लोक में इस बात को स्पष्ट रूप से कह भी दिया है।
  7. प्रकृति और पुरुष के तत्त्व को जान लेने के साथ ही पुरुष का प्रकृति से सम्बन्ध टूट जाता है; क्योंकि प्रकृति और पुरुष का संयोग स्वप्नवत, अवास्तविक और केवल अज्ञानजनित माना गया है। जब तक प्रकृति का पुरुष को पूर्ण ज्ञान नहीं होता, तभी तक पुरुष का प्रकृति से और उसके गुणों से सम्बन्ध रहता है। और तभी तक उसका बार-बार योनियों में जन्म होता है। (गीता 13:21) अतएव इनका तत्त्व जान लेने के बाद पुर्नजन्म नहीं होता। अतएव इनका तत्त्व जान लेने के बाद पुर्नजन्म नहीं होता।
  8. गीता के छठे अध्याय के ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें श्लोकों में बतलायी हुई विधि के अनुसार शुद्ध और एकान्त स्थान में उपयुक्त आसन पर निश्चलभाव से बैठकर इन्द्रियों को विषयों से हटाकर, मन को वश में करके तथा एक परमात्मा के सिवा दृश्य- मात्र को भूलकर निरन्तर परमात्मा का चिन्तन करना ध्यान है। इस प्रकार ध्यान करते रहने से बुद्धि शुद्ध हो जाती है। और उस विशुद्ध सूक्ष्मबुद्धि से जो हृदय में सच्चिदानन्दघन पर ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किया जाता है, वही ध्यान द्वारा आत्मा-से-आत्मा में आत्मा को देखना है। परंतु भेदभाव से सगुण-निराकार का और सगुण-साकार का ध्यान करने वाले साधक भी यदि इस प्रकार का फल चाहते हों तो उनको भी अभेद भाव से निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रहा की प्राप्ति हो सकती है।
  9. सम्पूर्ण पदार्थ भृगतृष्णा के जल अथवा स्वप्न की सृष्टि के सदृश माया मात्र है; इसलिये प्रकृति के कार्य रूप समस्त गुण ही गुणों में बरत रहे हैं- ऐसा समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले समस्त कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित हो जाना तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के सिवा अन्य किसी में भी भिन्न-सत्ता न समझना- यह ‘सांख्ययोग’ नामक साधन है और इसके द्वारा जो आत्मा और परमात्मा के अभेद का प्रत्यक्ष होकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का अभिन्न भाव से प्राप्त हो जाना है, वही सांख्ययोग के द्वारा आत्मा-आत्मा में देखना है। यह साधन साधनचतुष्टयसम्पन्न अधिकारी के द्वारा ही सुगमता से किया जा सकता है। इसका विस्तार ‘गीतातत्त्व-विवेचनी’ में देखना चाहिये।
  10. जिस साधन का गीता के दूसरे अध्याय में चालीसवें श्लोक उक्त अध्याय की समाप्ति पर्यन्त फलसहित वर्णन किया गया है, उसका वाचक यहाँ ‘कर्मयोग’ है। अर्थात आसक्ति और कर्मफल का सर्वथा त्याग करके सिद्धि और असिद्धि में समत्व रखते हुए शास्त्रानुसार निष्कामभाव से अपने अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार सब प्रकार के विहितकर्मों का अनुष्ठान करना कर्मयोग है और इसके द्वारा जो सच्चिदानन्दघन पर ब्रह्म परमात्मा को अभिन्न भाव से प्राप्त हो जाना है, वही कर्मयोग के द्वारा आत्मा में आत्मा को देखना हैं।
  11. इस अध्याय के पाँचवें श्लोक में जिन चौबीस तत्त्वों के समुदाय को क्षेत्रफल स्वरूप बतलाया गया है, गीता के सातवें अध्याय के चौथे, पाँचवें श्लोक में जिसको ‘अपरा प्रकृति’ कहा गया है, वही ‘क्षेत्र’ है और उसको जो जानने वाला है, जिसको गीता के सातवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में ‘परा प्रकृति’ कहा गया है, वह चेतन तत्त्व ही ‘क्षेत्रज्ञ’ है, उसका यानी ‘प्रकृतिस्थ’ बने हुए भिन्न-भिन्न सूक्ष्म और स्थूल शरीरों के साथ सम्बन्ध होना है, वही क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का संयोग है और इसके होते ही जो भिन्न भिन्न योनियों द्वारा भिन्न-भिन्न आकृतियों में प्राणियों का प्रकट होना है, वही उनका उत्पन्न होना है।

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