महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 27-30

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 27-30 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 13

जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है, वही यर्थाथ देखता है।[1] क्योंकि जो पुरुष सब में समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता,[2] इससे वह परमगति को प्राप्त होता है।

सम्बन्ध- इस प्रकार नित्य विज्ञानान्दघन आत्मतत्त्व को सर्वत्र समभाव से देखने का महत्त्व और फल बतलाकर अब अगले श्लोक में उसे अकर्ता देखने वाले की महिमा कहते हैं- और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखना है, वही यर्थाथ देखता है।[3] जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है,[4] उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।

सम्बन्ध- इस प्रकार आत्मा को सब प्राणियों में समभाव से स्थित, निर्विकार और अकर्ता बतलाया जाने पर यहाँ शंका होती है कि समस्त शरीरों में रहता हुआ भी आत्मा उनके दोषों से निर्लिप्त और अकर्ता कैसे रह सकता है; इस शंका का निवारण करने के लिये अब भगवान- इस अध्याय के तीसरे श्लोक में जो ‘यत्प्रभावश्च’ पद से क्षेत्रज्ञ का प्रभाव सुनने का संकेत किया गया था, उसके अनुसार- तीन श्लोकों द्वारा आत्मा के प्रभाव का वर्णन करते हैंं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ ‘परमेश्वर’ शब्द प्रकृति से सर्वथा अतीत उस निर्विकार चेतन तत्त्व का वाचक है, जिसका वर्णन ‘क्षेत्रज्ञ’ के साथ एकता करते हुए इसी अध्याय के बाईसवें श्लोक में उपद्रष्टा, अनमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा के नाम से किया गया हैं। समस्त प्राणियों के जितनें सम्बन्ध से वे विनाशशील कहेे जाते हैं, समस्त शरीरों में उनके वास्तविक स्वरूपभूत एक ही अविनाशी निर्विकार चेतनतत्त्व परमात्मा को जो विनाशशील बादलों में आकाश की भाँति समयभाव से स्थित और नित्य देखना है।- वही उस ‘परमेश्वर को समस्त प्राणियों में विनाशरहित और समभाव से स्थित देखना’ है।
  2. एक ही सच्चिदानन्दघन परमात्मा सर्वत्र समभाव से स्थित है, अज्ञान के कारण ही भिन्न-भिन्न शरीरों में उसकी भिन्नता प्रतीत होती है- वस्तुतः उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है- इस तत्त्व को भलीभाँति समझकर प्रत्यक्ष कर लेना ही ‘सर्वत्र समभाव से स्थित परमेश्वर को सम देखना’ है। जो इस तत्त्व को नहीं जानते, उनका देखना सम देखना नहीं है; क्योंकि उनकी सब में विषमबुद्धि होती है, वे किसी को अपना प्रिय, हितैषी और किसी को अप्रिय तथा अहित करने वाला समझते हैंं एवं अपने आपको दूसरो से भिन्न, एकदेशीय मानते हैंं। अतएव वे शरीरों के जन्म और मरण को अपना जन्म और मरण मानने के कारण बार-बार नाना योनियों में जन्म लेकर मरते रहते हैं, यही उनका अपने द्वारा अपने को नष्ट करना है; परन्तु जो पुरुष उपयुक्त प्रकार से एक ही परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वह न तो अपने को उस परमेश्वर से भिन्न समझता है और न इन शरीरों से अपना कोई सम्बन्ध ही मानता है। इस लिये वह शरीरों के विनाश के अपना विनाश नहीं देखता और इसीलिये वह अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता अभिप्राय यह है कि उसकी स्थिति सर्वज्ञ, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन परमब्रह्मपरमात्मा में अभिन्न भाव से हो जाती है, अतएव वह सदा के लिये जन्म-मरण से छूट जाता है।
  3. गीता के तीसरे अध्याय के सत्ताईसवें, अठाईसवें और चौदहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोकों में समस्त कर्मोें को गुणों द्वारा किये जाते हुए बतलाया गया है तथा पाँचवें अध्याय के आठवें, नवें श्लोकों सब इन्द्रियों का इन्द्रियों के विषयों में बरतना कहा गया है और यहाँ सब कर्मों को प्रकृति द्वारा किये जाते हुए देखने को कहते हैंं। इस प्रकार तीन तरह के वर्णन का तात्पर्य एक ही है; क्योंकि सत्त्व, रज, और तम- ये तीनों गुण प्रकृति के ही कार्य हैं तथा समस्त इन्द्रियाँ और मन, बुद्धि आदि एवं इन्द्रियों के विषय- ये सब भी गुणों के ही विस्तार हैं। अतएव इन्द्रियों का इन्द्रियों के विषयों में बरतना, गुणों का गुणों मे बरतना, और गुणों द्वारा समस्त कर्मों को किये जाते हुए बतलाना भी सब कर्मों को प्रकृति- द्वारा ही किये जाते हुए बतलाना है। अतः सभी जगहों के कथन का अभिप्राय आत्मा में कर्तापन का अभाव दिखलाना है।
    आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, और सब प्रकार के विकारों से रहित है; प्रकृति से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं अतएव वह न किसी भी कर्म का कर्ता है और न कर्मों के फल का भोक्ता ही है- यह बात का अपरोक्ष भाव से अनुभव कर लेना ‘आत्मा को अकर्ता समझना’ है तथा जो ऐसा देखता है, वही यथार्थ देखता है।
  4. जैसे स्वप्न से जगा हुआ मनुष्य स्वप्नकाल में दिखलायी देने वाले समस्त प्राणियों के नाना तत्त्व को अपने-आपमें ही देखता है और यह भी समझता है कि उन सबका विसतार मुझसे ही हुआ था; वस्तुतः स्वप्न की सृष्टि में मुझसें भिन्न कुछ भी नहीं था, एक मैं ही अपने-आपको अनेक रूप में देख रहा था- इसी प्रकार जो समस्त प्राणियों को केवल एक परमात्मा में ही स्थित और उसी से सबका विस्तार देखता है, वही ठीक देखता है और इस प्रकार देखना ही सबको एक में स्थित और उसी एक से सबका विस्तार देखना है।

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