महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 31-34

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 31-34 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 13


हे अर्जुन! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा[1] शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है।[2] सम्बन्ध- शरीर में स्थित होने पर भी आत्मा क्यों नहीं लिप्त होता है इस पर कहते हैं- जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता,[3] वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता। हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।[4]

सम्बन्ध- तीसरे श्लोक में जिन छः बातों को कहने का भगवान ने संकेत किया था, उनका वर्णन करके अब इस अध्याय में वर्णित समस्त उपदेश को भलीभाँति समझने का फल पर ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति बतलाते हुए अध्याय का उपसंहार करते हैं- इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ भेद को तथा कार्यसहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान- नेत्रों द्वारा तत्त्व से जानते हैं,[5] वे महात्माजन परमब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं।


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के श्रीमद्भगवतद्गीतापर्व के अंतर्गत ब्रह्मविद्या और योगशास्‍त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्‍णार्जुनसंवाद में भक्तियोग नामक तेरहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ ।।13।। भीष्‍मपर्व में सैंतीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिसका कोई आदि यानी कारण न हो एवं जिसकी किसी भी काल में नयी उत्पत्ति न हुई हो और जो सदा से ही हो, उसे ‘अनादि’ कहते हैं। प्रकृति और उसके गुणों से जो सर्वथा अतीत हो, गुणों से और गुणों के कार्य से जिसका किसी काल में और किसी भी अवस्था में वास्तविक सम्बन्ध न हो, उसे ‘निर्गुण’ कहते हैं। अतएव यहाँ ‘अनादि’ और ‘निर्गुण’- इन दोनों शब्दों का प्रयोग करके वह दिखलाया गया है कि जिसका प्रकरण चल-चल रहा है, वह आत्मा ‘अनादि’ और ‘निर्गुण’ है; इसलिये वह अकर्ता, निर्लिप्त और अव्यय है- जन्म, मृत्यु आदि छः विकारों सर्वथा अतीत है।
  2. जैसे आकाश बादलों में स्थित होने पर भी उनका कर्ता नहीं बनता और उनसे लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं बनता और शरीरों से लिप्त भी नहीं होता।
  3. आकाश के दृष्टान्त से आत्मा में निलेपता सिद्ध की गयी है। अभिप्राय यह है कि जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में सब जगह समयभाव से व्याप्त होते हुए भी उनके गुण-दोषों से किसी तरह भी लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा भी इस शरीर में सब जगह व्याप्त होते हुए भी अत्यनत सूक्ष्म और गुणों से सर्वथा अतीत होने के कारण बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर के गुण-दोषों से जरा भी लिपायमान नहीं होता।
  4. इस श्लोक में रवि (सूर्य) का दृष्टान्त देकर आत्मा में अकर्तापन की और ‘रवि’; पद के साथ ‘एकः’ विशेषण देकर आत्मा के अद्वैतभाव की सिद्धि की गयी है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार एक ही सूर्य सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा समस्त क्षेत्र को यानी इसी अध्याय के पाँचवें और छठे श्लोकों मे विकारसहित क्षेत्र के नाम से जिसके स्वरूप का वर्णन किया गया है, उस समस्त जड़वर्गरूप समस्त जगत को प्रकाशित करता है, सबको सत्ता-स्फुर्ति देता है तथा भिन्न-भिन्न अन्तःकरणों के सम्बन्ध से भिन्न-भिन्न शरीरों में उसका भिन्न-भिन्न प्राकट्य होता-सा देखा जाता है ऐसा होने पर भी वह आत्मा सूर्य की भाँति न तो उनके कर्मों को करने वाला और न करवाने वाला ही होता है तथा न द्वैतभाव या वैषम्यादि दोषों से ही युक्त होता है। वह अविनाशी आत्मा प्रत्येक अवस्था में सदा-सर्वदा शुद्ध, विज्ञानस्वरूप, अर्कता, निर्विकार, सम और निरजन ही रहता है
  5. इस अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने जिसको अपने मत से ‘ज्ञान’ कहा है और गीता के पांचवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में जिसको अज्ञान का नाश करने में कारण बतलाया है, जिसकी प्राप्ति अमानित्वादि साधनों से होती है, इस श्लोक में ‘ज्ञानचक्षुषा’ पद में आया हुआ ‘ज्ञान’ शब्द उसी ‘तत्त्वज्ञान’ का वाचक है।
    उस ज्ञान द्वारा जो भलीभाँति तत्त्व से यह समझ लेना है महाभूतादि चौबीस तत्त्वों के समुदाय रूप समष्टिशरीर का नाम ‘क्षेत्र’ है; वह जानने में आने वाला, परिर्वतनशील, विनाशी, विकारी, जड़, परिणामी और अनित्य है तथा ‘क्षेत्रज्ञ’ उसका ज्ञाता (जानने वाला), चेतन, निर्विकार, अकर्ता, नित्य, अविनाशी, असंग, शुद्ध, ज्ञानस्वरूप और एक है इस प्रकार दोनों मे विलक्षणता होने के कारण क्षेत्रज्ञ क्षेत्र से सर्वथा भिन्न हैं। यही ज्ञानचक्षु के द्वारा ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के भेद को जानना है।
    इस श्लोक में ‘भूत’ शब्द प्रकृति के कार्यरूप समस्त दृश्यवर्ग का और प्रकृति उसके कारण का वाचक है। अतः कार्यसहित प्रकृति से सर्वथा मुक्त हो जाना ही ‘भूतप्रकृतिमोक्ष’ है तथा उपयुक्त प्रकार से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को जानने के साथ साथ जो क्षेत्रज्ञ का प्रकृति से अलग होकर अपने वास्तविक परमात्मस्वरूप में अभिन्न-भाव से प्रतिष्ठित हो जाना है, यही कार्यसहित प्रकृति से मुक्त हो जाने को जानना है।
    अभिप्राय यह है कि जैसे स्वप्न में मनुष्य को किसी निमित्त से अपनी जाग्रत- अवस्था की स्मृति हो जाने से यह मालूम हो जाता है कि यह स्वप्न है, अतः अपने असली शरीर में जग जाना ही इसके दुःखों से छुटने का उपाय है। इस का भाव का उदय होते ही वह जग उठता है; वैसे ही ज्ञानयोगी का क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की विलक्षणताओं को समझकर याथ ही साथ जो यह समझ लेना है कि अज्ञानवश क्षेत्र को सच्ची वस्तु समझने के कारण ही इसके साथ मेरा सम्बन्ध हो रहा है। अतः वास्तविक सच्चिदानन्दघन परमात्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही इससे मुक्त होना है; यही उसका कार्यसहित प्रकृति से मुक्त होने को जानता है।

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