महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 18-20

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 18-20 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 13

इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप से कहा गया।[1] मेरा भक्त इसको तत्त्व से जान- कर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।[2] सम्बन्ध- इस अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान् ने क्षेत्र के विषय में चार बातें और क्षेत्रज्ञ के विषय में दो बातें संक्षेप में सुनने के लिये अर्जुन से कहा था, फिर विषय आरम्भ करते ही क्षेत्र के स्वरूप का और उसके विकारों का वर्णन करने के अनन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के तत्त्व को भलीभाँति जानने के उपायभूत साधनों का और जानने के योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन प्रसंगवश किया गया। इससे क्षेत्र के विषय में उसके स्वभाव-का और किस कारण से कौन कार्य उत्पन्न होता है, इस विषय का तथा प्रभाव सहित क्षेत्रज्ञ के स्वरूप का भी वर्णन नहीं हुआ। अतः अब उन सबका वर्णन करने के लिये भगवान् पुनः प्रकृति[3] और पुरुष इन दोनों को ही तु अनादि जान।[4] और राग द्वेषादि विकारों को तभा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को प्रकृति से ही उत्पन्न जान।

सम्बन्ध- इस अध्याय के तीसरे श्लोक में, जिससे जो उत्पन्न हुआ है, यह बात सुनने के लिये कहा गया था, उसका वर्णन पूर्व श्लोक के उत्तरार्द्ध में कुछ किया गया। अब उसी की कुछ बात इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में कहते हुए इसके उत्तरार्द्ध में और इक्कीसवें श्लोक में प्रकृति में स्थित पुरुष के स्वरूप का वर्णन किया जाता है- कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है[5] और जीवात्मा सुख दुःख के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है।[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्थात् जानने योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है।
  2. क्षेत्र को प्रकृति कार्य, जड, विकारी, अनित्य और नाशवान् समझना, ज्ञान के साधनों को भलीभाँति धारण करना और उसके द्वारा भगवान् के निर्गुण, सगुण रूप को भलीभाँति समझ लेना- यही क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को जानना है तथा उस ज्ञेयस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाना ही भगवान् के स्वरूपों को प्राप्त हो जाना है।
  3. यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द ईश्वर की अनादिसिद्ध मूल प्रकृति वाचक है गीता के चौदहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में इसी प्रकार महद्ब्रह्म के नाम से कहा गया है। सातवें अध्याय के चौथे और पाँचवें श्लोकों में अपरा प्रकृति के नाम से और इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक क्षेत्र के नाम से भी इसी का वर्णन है। भेद इतना ही है कि वहाँ सातवें अध्याय में उसके कार्य- मन, बुद्धि, अहंकार और पंचमहाभूतादि के सहित प्रकृति का वर्णन है और यहाँ केवल ‘मूल प्रकृति’ वर्णन है।
  4. जीव का जीवत्व अर्थात प्रकृति के साथ उसका सम्बन्ध किसी हेतु से होने वाला- आगन्तुक नहीं है यह अनादि-सिद्ध है और इसी प्रकार ईश्वर की शक्ति यह प्रकृति भी अनादिसिद्ध है- ऐसा समझना चाहिये।
  5. आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी यह पाँचों सूक्ष्म महाभूत तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध- ये पाँचों इन्द्रियों के विषय; इन दसों का वाचक यहाँ ‘कार्य’ शब्द है। बुद्धि, अहंकार और मन- यह तीनों अन्तःकरण; श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, और घ्राण- यह पाँचों इन्द्रियाँ एवं वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ, और गुदा यह पाँचों कमेन्द्रियाँ; इन तरह का वाचक यहाँ ‘करण’ शब्द है। ये तेईस तत्त्व प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैंं, प्रकृति ही उनका उत्पादन कारण है; क्योंकि प्रकृति महत्तत्त्व, महत्तत्त्व से अहंकार, अहंकार से पाँच सूक्ष्म महाभूत, मन और दस इन्द्रिय तथा पाँच सूक्ष्म महाभूतों से पाँचों इन्द्रियों के शब्दादि पाँचों स्थूल विषयों की उत्पत्ति मानी जाती हैं। सांख्यकारिका में भी कहा है-
    प्राकृतेर्महांस्ततोअहड़कारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि।। (सांख्यकारिका 22)

    प्रकृति महत्तत्त्व (समष्टिबुद्धि) की यानी बुद्धितत्त्व की, उससे अहंकार की और अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ, एक मन और दस इन्द्रियाँ- इन सोलह के समुदाय की उत्पत्ति हुई तथा उन सोलह में से पाँच तन्मात्राओं से पाँच स्थूलभूतों की उत्पत्ति हुई।
    गीता के वर्णन में पाँच तन्मात्राओं की जगह पाँच सूक्ष्म महाभूतों का नाम आया है और पाँच स्थूलभूतों के स्थान में पाँच इन्द्रियों के विषयों का नाम आया है, इतना ही भेद है।

  6. प्रकृति जड़ है, उसमें भोक्तापन की सम्भावना नहीं है और पुरुष असंग है, इसलिये उसमें भी वास्तव में भोक्तापन नहीं है। प्रकृति के संग से ही पुरुष में भोक्तापन की प्रतीति-सी होती है, और यह प्रकृति पुरुष का संग अनादि है, इसलिये यहाँ पुरुषों का सुख-दुखों के भोक्तापन में हेतु यानी निर्मित माना जाता है।

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