महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 147 श्लोक 43-63

सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद

उन्हें ब्रह्म आदि देवता और सिद्ध पुरुष ही यथार्थ रूप से जान पाते हैं। उन दोनों के प्रभाव की कहीं तुलना नहीं है। अच्छा, अब युद्ध का वृतान्त सुनिये। सात्यकि को रथहीन और कर्ण को युद्ध के लिये उद्यत देख भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े जोर की ध्वनि करने वाले शंख को ऋषभस्वर से बजाया। दारुक ने उस शंख ध्वनि को सुनकर भगवान के संदेश को स्मरण करके तुरंत ही उनके लिये अपना रथ ला दिया, जिस पर गरुड़ चिह्न से युक्त ऊँची ध्वजा फहरा रही थी। भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति पाकर शिनिपौत्र सात्यकि दारुक द्वारा जोते हुए अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी उस रथ पर आरूढ़ हुए। उसमें इच्छानुसार चलने वाले महान वेगशाली और सुवर्णमय अलंकारों से विभूषित शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम वाले श्रेष्ठ अश्व जुते हुए थे। वह रथ विमान के समान जान पड़ता था। उस पर आरूढ़ होकर बहुत-से बाणों की वर्षा करते हुए सात्यकि ने राधा-पुत्र कर्ण पर धावा किया। उस समय चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा ने भी धनंजय का रथ छोड़कर कर्ण पर ही आक्रमण किया।

महाराज! अत्यन्त क्रोध में भरे हुए कर्ण ने भी उस युद्धस्थल में अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले सात्यकि पर बाणों की वर्षा करते हुए धावा किया। राजन! मैंने इस पृथ्वी पर या स्वर्ग में देवताओं, गन्धर्वों, असुरों तथा राक्षसों का भी वैसा युद्ध नहीं सुना था। महाराज! उन दोनों का वह संग्राम देखकर सबके चित मे मोह छा गया। राजन! सभी दर्शक के समान उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों के उस अतिमानव युद्ध को और दारुक के सारथ्य कर्म को देखने लगे। हाथी, घोड़े, रथ और मनुष्यों से युक्त वह चतुरंगिणी सेना भी युद्ध से उपरत हो गयी थी। रथ पर बैठे हुए कश्‍यपगोत्रीय सारथि दारुक के रथ संचालन की गमन, प्रत्यागमन, आवर्तन, मण्डल तथा संनिवर्तन आदि विविध रीतियों से आकाश में खडे़ हुए देवता, गन्धर्व और दानव भी चकित हो उठे तथा कर्ण और सात्यकि के युद्ध को देखने के लिये अत्यन्त सावधान हो गये। वे दोनों बलवान वीर रणभूमि में एक दूसरे से स्पर्धा रखते हुए अपने-अपने मित्र के लिये पराक्रम दिखा रहे थे। महाराज! देवताओं के समान तेजस्वी कर्ण तथा सत्यकिपुत्र युयुधान दोनों एक दूसरे पर बाणों की बौछार करने लगे। कर्ण ने भूरिश्रवा और जलसंघ के वध को सहन न करने के कारण अपने बाणों की वर्षा से शिनिपौत्र सात्यकि को मथ डाला।

शत्रुदमन नरेश! कर्ण उन दोनों की मृत्यु से शोकमग्न हो फुफकारते हुए महान सर्प की भाँति लंबी सांसें खींच रहा था। वह युद्ध में क्रुद्ध हो अपने नेत्रों से सात्यकि की ओर इस प्रकार देख रहा था; मानो वह उन्हें जलाकर भस्म कर देगा। उसने बारम्‍बार वेगपूर्वक सात्यकि पर धावा किया। कर्ण को कुपित देख सात्यकि बाणों की बड़ी भारी वर्षा करते हुए उसका सामना करने लगे, मानो एक हाथी दूसरे हाथी से लड़ रहा हो। वेगशाली व्याघ्रों के समान परस्पर भिडे़ हुए वे दोनों पुरुषसिंह युद्ध में अनुपम पराक्रम दिखाते हुए एक दूसरे को क्षत-विक्षत कर रहे थे। शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज! तदनन्तर शिनिपौत्र सत्यकि ने सम्पूर्णतः लोहमय बाणों द्वारा कर्ण को उसके सारे अंगो में बारंबार चोट पहुँचायी और एक भल्ल द्वारा उसके सारथि को रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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