महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 147 श्लोक 21-42

सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद

आचार्यों से विद्या ग्रहण करके जो श्रेष्ठ पुरुष उन्हें उनकी अभीष्ट वस्तुएं देते हैं, वे देवत्व को प्राप्त होते हैं। गुरु विद्या ग्रहण करके जो नराधम ही चोट करते हैं, वे दुराचारी मानव निश्‍चय ही नरकगामी होते हैं। मैंने आचार्य कृप को अपने बाणों की वर्षा द्वारा रथ पर सुला दिया है। निश्‍चय ही यह कर्म मैंने आज नरक में जाने के लिये ही किया है। पूर्वकाल में मुझे अस्त्रविद्या की शिक्षा देकर कृपाचार्य ने जो मुझसे यह कहा था कि कुरुनन्दन! तुम्हें गुरु के ऊपर किसी प्रकार भी प्रहार नहीं करना चाहिये। उन श्रेष्ठ महात्मा आचार्य का यह वचन युद्धस्‍थल में उन्हीं पर बाणों की वर्षा की वर्षा करके मैंने नहीं माना है। वार्ष्‍णेय! युद्ध से कभी पीठ न दिखाने वाले उन परम पूजनीय गौतमवंशी कृपाचार्य को मेरा नमस्कार है मैं जो उन पर प्रहार करता हूं, इसके लिये मुझे धिक्कार है।

सव्यसाची अर्जुन कृपाचार्य के लिये विलाप कर ही रहे थे कि सिंधुराज को मारा गया देख राधानन्दन कर्ण ने उन पर धावा कर दिया। राधापुत्र कर्ण को अर्जुन के रथ की ओर आते देख दोनों भाई पांचाल राजकुमार (युधामन्यु और उत्तमौजा) तथा सात्वतवंशी सात्यकि सहसा उसकी ओर दौडे़। राधापुत्र को अपने समीप आते देख महारथी कुन्तीकुमार अर्जुन ने देवकीनन्दन श्रीकृष्ण से हंसते हुए कहा- 'यह अधिरथपुत्र कर्ण सात्य‍कि‍ के रथ की ओर जा रहा है। अवश्‍य ही युद्धस्‍थल में भूरिश्रवा का मारा जाना इसके लिये असह हो उठा है। जनार्दन! यह जहाँ जाता है, वही आप भी अपने घोड़ों को हांकिये। कहीं ऐसा न हो कि कर्ण सात्यकि को भूरिश्रवा के पथ पर पहुँचा दे।' सव्यसाची अर्जुन के ऐसा कहने पर महातेजस्वी महाबाहु केशव ने उनसे यह समयोचित वचन कहा- 'पाण्डुनन्दन! यह महाबाहु सात्‍वतशिरोमणी सात्यकि अकेला भी कर्ण के लिये पर्याप्त है। फिर इस समय जब द्रुपद के दोनों पुत्र इसके साथ हैं, तब तो कहना ही क्या है। कुन्तीकुमार! इस समय कर्ण के साथ तुम्हारा युद्ध होना ठीक नहीं हैं; क्योंकि उसके पास बड़ी भारी उल्‍का-के समान प्रज्वलित होने वाली इन्द्र की दी हुई शक्ति है। शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन! तुम्हारे लिये कर्ण उसकी प्रतिदिन पूजा करते हुए उसे सदा सुरक्षित रखता है; अतः कर्ण सात्यकि के पास जैसे-तैसे जाये और युद्ध करे। कुन्तीकुमार! मैं उस दुरात्मा का अन्तकाल जानता हूं, जबकि तुम अपने तीखे बाणों द्वारा उसे पृथ्वी पर मार गिराओगे।'

धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! भूरिश्रवा के मारे जाने और सिंधुराज के धराशायी किये जाने पर कर्ण के साथ वीरवर सात्यकि का जो संग्राम हुआ, वह कैसा था? संजय! सात्यकि भी तो रथहीन हो चुके थे। वे किस रथ पर आरूढ हुए तथा चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा इन दोनों पांचाल वीरों ने किसके साथ युद्ध किया? यह सब मुझे बताओ।

संजय ने कहा- राजन! मैं बड़े खेद के साथ उस महासमर में घटित हुई घटनाओं का आपके समक्ष वर्णन करूंगा। आप स्थिर होकर अपने दुराचार का परिणाम सुनें। प्रभो! भगवान श्रीकृष्ण के मन में पहले ही यह बात आ गयी थी कि आज वीर सात्यकि को सोमदतपुत्र भूरिश्रवा परास्त कर देगा। राजन! ये जनार्दन भूत और भविष्य दोनों कालों को जानते हैं। इसीलिये उन्होंने अपने सारथि दारुक को बुलाकर पहले ही दिन यह आज्ञा दे दी थी कि कल सवेरे से ही मेरा रथ जोतकर तैयार रखना। महाराज! श्रीकृष्ण का बल महान है। श्रीकृष्ण और अर्जुन को परास्त करने वाले न तो कोई देवता हैं, न गन्धर्व हैं, न यक्ष, नाग तथा राक्षस हैं और न मनुष्य ही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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