चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 406-424 का हिन्दी अनुवाद
ऋषिगण आपके विषय में ऐसा ही कहते हैं। वेद, यज्ञ, सोम, दक्षिणा, अग्नि, हविष्य तथा जो कुछ भी यज्ञोपयोगी सामग्री है, वह सब आप भगवान ही हैं, इसमें संशय नहीं है। यज्ञ, दान, अध्ययन, व्रत और नियम, लज्जा, कीर्ति, श्री, द्युति, तुष्टि तथा सिद्धि- ये सब आपके स्वरूप की प्राप्ति कराने वाले हैं। भगवान! काम, क्रोध, भय, लोभ, मद, स्तब्धता, मात्सर्य, आधि और व्याधि- ये सब आपके ही शरीर हैं। क्रिया, विकार, प्रणय, प्रधान, अविनाशी, बीज, मन का परम कारण और सनातन प्रभाव- ये भी आपके ही स्वरूप हैं। अव्यक्त, पावन, अचिन्त्य, हिरण्मय सूर्यस्वरूप आप ही समस्त गणों के आदिकारण तथा जीवन के आश्रय हैं। महान, आत्मा, मति, ब्रह्मा, विश्व, शंभु, स्वयम्भू, बुद्धि, प्रज्ञा, उपलब्धि, संवित्, ख्याति, धृति ओर स्मृति- इन चौदह पर्यायवाची शब्दों द्वारा आप परमात्मा ही प्रकाशित होते हैं। वेद से आपका बोध प्राप्त करके ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण मोह का सर्वथा नाश कर देता है। ऋषियों द्वारा प्रशंसित आप ही सम्पूर्ण भूतों के हृदय में स्थित क्षेत्रज्ञ हैं। आपके सब ओर हाथ-पैर हैं। सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं। आपके सब ओर कान हैं और जगत में आप सबको व्याप्त करके स्थित हैं। जीव के आंख मीजने और खोलने से लेकर जितने कर्म हैं, उनके फल आप ही हैं। आप अविनाशी परमेश्वर ही सूर्य की प्रभा और अग्नि की ज्वाला हैं। आप ही सबके हृदय में आत्मारूप से निवास करते हैं। अणिमा, महिमा, और प्राप्ति आदि सिद्धियाँ तथा ज्येाति भी आप ही हैं। आप में बोध और मनन की शक्ति विद्यमान है। जो लोग आपकी शरण में आकर सर्वथा आपके आश्रित रहते हैं, वे ध्यानपरायण, नित्य योगयुक्त, सत्यसकंल्प तथा जितेन्द्रिय होते हैं। जो आपको अपनी हृदयगुहा में स्थित आत्मा, प्रभु, पुराण-पुरुष, मूर्तिमान परब्रह्मा, हिरण्मय पुरुष और बुद्धिमानों की परम गतिरूप में निश्चित भाव से जानता है, वहीं बुद्धिमान लौकिक बुद्धि का उल्लंघन करके परमात्म-भाव में प्रतिष्ठित होता है। विद्वान पुरुष महत्त्वत्त्व, अंहकार और पंचतंमात्रा इन सात सूक्ष्म तत्वों को जानकर आपके स्वरूपभूत छ: अंगों का बोध प्राप्त करके प्रमुख विधियोग का आश्रय ले आप में ही प्रवेश करते हैं। कुन्तीनन्दन! जब मैंने सबकी पीड़ा का नाश करने वाले महादेव जी की इस प्रकार स्तुति की, तब यह सम्पूर्ण चराचर जगत सिंहनाद कर उठा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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