महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-5

एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-5 का हिन्दी अनुवाद


उमा ने पूछा- भगवन! मैं एक और संशय उपस्थित करती हूँ, चारों वर्णों का जो-जो धर्म अपने-अपने वर्ण के लिये विशेष लाभकारी हो, वह मुझे बताने की कृपा कीजिये। ब्राह्मण के लिये धर्म का स्वरूप कैसा है, क्षत्रिय के लिये कैसा है, वैश्य के लिये उपयोगी धर्म का क्या लक्षण है तथा शूद्र के धर्म का भी क्या लक्षण है?

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुम्हारे मन को प्रिय लगने वाला जो यह धर्म का विषय है, उसे बताऊँगा। तुम वर्णों और आश्रमों पर अवलम्बित समस्त धर्म का पूर्णरूप से वर्णन सुनो।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- ये वर्णों के चार भेद हैं। लोकतन्त्र की इच्छा रखने वाले विधाता ने सबसे पहले ब्राह्मणों की सृष्टि की है और शास्त्रों में उनके योग्य कर्मों का विधान किया है। देवि! यदि यह सारा जगत् एक ही वर्ण का होता तो सब साथ ही नष्ट हो जाता। इसलिये विधाता ने चार वर्ण बनाये हैं। ब्राह्मणों की सृष्टि विधाता के मुख से हुई है, इसीलिये वे वाणीविशारद होते हैं। क्षत्रियों की सृष्टि दोनों भुजाओं से हुई है, इसीलिये उन्हें अपने बाहुबल पर गर्व होता है। वैश्यों की उत्पत्ति उदर से हुई है, इसीलिये वे उदर पोषण के निमित्त कृषि, वाणिज्यादि वार्तावृत्ति का आश्रय ले जीवन-निर्वाह करते हैं। शूद्रों की सृष्टि पैर से हुई है, इसलिये वे परिचारक होते हैं। देवि! अब तुम एकाग्रचित्त होकर चारों वर्णों के धर्म और कर्मों का वर्णन सुनो।

ब्राह्मण को इस भूमि का देवता बनाया गया है। वे सब लोकों की रक्षा के लिये उत्पन्न किये गये हैं। अतः अपने हित की इच्छा रखने वाले किसी भी मनुष्य को ब्राह्मणों का अपमान नहीं करना चाहिये। देवि! यदि दान और योग का वहन करने वाले वे ब्राह्मण न हों तो लोक और परलोक दोनों की स्थिति कदापि नहीं रह सकती। जो ब्राह्मणों का अपमान और निन्दा करता अथवा उन्हें क्रोध दिलाता या उन पर प्रहार करता अथवा उनका धन हर लेता है या काम, लोभ एवं मोह के वशीभूत होकर उनसे नीच कर्म कराता है, वह नराधम मेरा ही अपमान या निन्दा करता है। मुझे ही क्रोध दिलाता है, मुझ पर ही प्रहार करता है, वह मूढ़ मेरे ही धन का अपहरण करता है तथा वह मूढ़चित्त मानव मुझे ही इधर-उधर भेजकर नीच कर्म कराता और निन्दा करता है।

वेदों का स्वाध्याय, यज्ञ और दान ब्राह्मण का धर्म है, यह शास्त्र का निर्णय है। वेदों को पढ़ाना, यजमान का यज्ञ कराना और दान लेना- ये उसकी जीविका के साधनभूत कर्म हैं। सत्य, मनोनिग्र, तप और शौचाचार का पालन- यह उनका सनातन धर्म है। रस और धान्य (अनाज) का विक्रय करना ब्राह्मण के लिये निन्दित है। सदा तप करना ही ब्राह्मण का धर्म है, इसमें संशय नहीं है। विधाता ने पूर्वकाल में धर्म का अनुष्ठान करने के लिये ही अपने तपोबल से ब्राह्मण को उत्पन्न किया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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