महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-4

एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-4 का हिन्दी अनुवाद


नारद जी कहते हैं- देवेश्वर भगवान शंकर के ऐसा कहने पर सभी महर्षि बड़े विस्मित हुए और हाथ जोड़कर अपनी वाणी द्वारा उन महादेव जी की स्तुति करने लगे।

ऋषि बोले- सर्वेश्वर शंकर! आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत के गुरुदेव! आपको नमस्कार है। देवताओं के भी आदि देवता! आपको नमस्कार है। चन्द्रकलाधारी शिव! आपको नमस्कार है। अत्यन्त घोर से भी घोर रुद्रदेव! शंकर! आपको बार-बार नमस्कार है। अत्यन्त शान्त से भी शान्त शिव! आपको नमस्कार है। चन्द्रमा के पालक! आपको नमस्कार है। उमा सहित महादेव जी को नमस्कार है। चतुर्मुख! आपको नमस्कार है। गंगा जी के जल को सिर पर धारण करने वाले भूतनाथ शम्भो! आपको नमस्कार है। हाथों में त्रिशूल धारण करने वाले तथा सर्पमय आभूषणों से विभूषित आप महादेव को नमस्कार है। दक्ष-यज्ञ को दग्ध करने वाले त्रिलोचन! आपको नमस्कार है। लोक रक्षा में तत्पर रहने वाले शंकर! आपके बहुत से नेत्र हैं, आपको नमस्कार है। अहो! महादेव जी का कैसा माहात्म्य है। अहो! रुद्रदेव की कैसी कृपा है। ऐसी धर्मपरायणता देवदेव महादेव के ही योग्य है।

नारद जी कहते हैं- जब मुनि इस प्रकार स्तुति कर रहे थे, उसी समय अवसर को जानने वाली देवी पार्वती मुनियों की प्रसन्नता के लिये भगवान शंकर से परम हित की बात बोलीं।

उमा ने पूछा- सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ! सर्वभूतेश्वर! भगवन! वरदायक! पिनाकपाणे! मेरे मन में यह एक और महान संशय है। प्रभो! यह जो मुनियों का सारा समुदाय यहाँ उपस्थित है, सदा तपस्या में संलग्न रहा है और तपस्वी का वेष धारण किये लोक में भ्रमण कर रहा है, इन सबकी आकृति भिन्न-भिन्न प्रकार की है।

शत्रुदमन शिव! इस ऋषि समुदाय का तथा मेरा भी प्रिय करने की इच्छा से आप मेरे इस संदेह का समाधान करें। प्रभो! धर्मज्ञ! धर्म का क्या लक्षण बताया गया है? तथा जो धर्म को नहीं जानते हैं, ऐसे मनुष्य उस धर्म का आचरण कैसे कर सकते हैं? यह मुझे बताइये।

नारद जी कहते हैं- तदनन्तर समस्त मुनि समुदाय ने देवी पार्वती की ऋग्वेद के मन्त्रार्थों से सुशोभित वाणी तथा उत्तम अर्थयुक्त स्तोत्रों द्वारा स्तुति एवं प्रशंसा की।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! किसी भी जीव की हिंसा न करना, सत्य बोलना, सब प्राणियों पर दया करना, मन और इन्द्रियों पर काबू रखना तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान देना, गृहस्थ आश्रम का उत्तम धर्म है। (उक्त गृहस्थ-धर्म का पालन करना), परायी स्त्री के संसर्ग से दूर रहना, धरोहर और स्त्री की रक्षा करना, बिना दिये किसी की वस्तु न लेना तथा मांस और मदिरा को त्याग देना- ये धर्म के पाँच भेद हैं, जो सुख की प्राप्ति कराने वाले हैं। इनमें से एक-एक धर्म की अनेक शाखाएँ हैं। धर्म को श्रेष्ठ मानने वाले मनुष्यों को चाहिये कि वे पुण्यप्रद धर्म का पालन अवश्य करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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