महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 84 श्लोक 59-82

चतुरशीतितमो (84) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: चतुरशीतितमो अध्याय: श्लोक 66-82 का हिन्दी अनुवाद


भृगुनन्दन! मैंने पहले पुराण में प्रजापति की कही हुई यह न्यायोचित बात सुन रखी है। भृगुकुलरत्न! भृगुनन्दन! परशुराम! यह बात उस समय की है, जब श्रेष्ठ पर्वत हिमालय पर शूलपाणी महात्मा भगवान रुद्र का देवी रुद्राणी के साथ विवाह संस्कार सम्पन्न हुआ और महामना भगवान शिव को उमादेवी के साथ समागम सुख प्राप्त था। उस समय सब देवता उद्विग्न होकर कैलास शिखर पर बैठे हुए महान देवता रुद्र और वरदायिनी देवी उमा के पास गये। भृगुश्रेष्ठ! वहाँ उन सबने उन दोनों के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें प्रसन्न करके भगवान रुद्र से कहा- 'पापरहित महादेव! यह जो देवी पार्वती के साथ आपका समागम हुआ है, यह एक तपस्वी का तपस्विनी के साथ और एक महातेजस्वी का एक तेजस्विनी के साथ संयोग हुआ है। देव! प्रभो! आपका तेज अमोघ है। ये देवी उमा भी ऐसी ही अमोघ तेजस्विनी हैं। आप दोनों की जो संतान होगी, वह अत्यन्त प्रबल होगी। निश्‍चय ही वह तीनों लोकों में किसी को शेष नहीं रहने देगी। विशाललोचन! लोकेश्‍वर! हम सब देवता आपके चरणों में पड़े हैं। आप तीनों लोकों के हित की इच्छा से हमें वर दीजिये।'

प्रभो! संतान के लिये प्रकट होने वाला जो आपका उत्तम तेज है, उसे आप अपने भीतर ही रोक लीजिये। आप दोनों त्रिलोकी के सारभूत हैं। अतः अपनी संतान के द्वारा सम्पूर्ण जगत को संतप्त कर डालेंगे। आप दोनों से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह निश्‍चय ही देवताओं को पराजित कर देगा। प्रभो! हमारा तो ऐसा विश्‍वास है कि न तो पृथ्वी देवी, न आकाश और न स्वर्ग ही आपके तेज को धारण कर सकेगा। ये सब मिलकर भी आपके तेज को धारण करने में समर्थ नहीं हैं। यह सारा जगत आपके तेज के प्रभाव से भस्‍म हो जायेगा। अतः भगवन! हम पर कृपा कीजिये। प्रभो! सुरश्रेष्ठ। हम यही चाहते हैं कि देवी पार्वती के गर्भ से आपके कोई पुत्र न हो, आप धैर्य से ही अपने प्रज्वलित उत्तम तेज को भीतर ही रोक लीजिये।'

विप्रर्षे! देवताओं के ऐसा कहने पर भगवान वृषभध्वज ने उनसे 'एवमस्तु' कह दिया। देवताओं से ऐसा कहकर वृषभवाहन भगवान शंकर ने अपने 'रेतस' अथवा वीर्य को ऊपर चढ़ा लिया। तभी से वे 'ऊर्ध्वरेता' नाम से विख्यात हुए।

'देवताओं ने मेरी भावी संतान का उच्छेद कर डाला।' यह सोचकर उस समय देवी रुद्राणी बहुत कुपित हुईं और स्त्री-स्वभाव होने के कारण उन्होंने देवताओं से यह कठोर वचन कहा- 'देवताओं! मेरे पतिदेव मुझसे संतान उत्पन्न करना चाहते थे, किंतु तुम लोगों ने इन्हें इस कार्य से निवृत्त कर दिया; इसलिये तुम सभी देवता निर्वंश हो जाओेगे। आकाशचारी देवताओं! आज तुम सब लोगों ने मिलकर मेरी संतति का उच्छेद किया है; अतः तुम सब लोगों के भी संतान नहीं होगी।'

भृगुश्रेष्ठ! उस शाप के समय वहाँ अग्नि देव नहीं थे; अतः उन पर यह शाप लागू नहीं हुआ। अन्य सब देवता देवी के शाप से संतानहीन हो गये। रुद्रदेव ने उस समय अपने अनुपम तेज (वीर्य) को यद्यपि रोक लिया था तो भी किंचित स्खलित होकर वहीं पृथ्वी पर गिर पड़ा। वह अद्भुत तेज अग्नि में पड़कर बढ़ने और ऊपर को उठने लगा। तेज से संयुक्त हुआ वह तेज एक स्वयंम्भू पुरुष के रूप में अभिव्यक्त होने लगा।

इसी समय तारक नामक एक असुर उत्पन्न हुआ था, जिसने इन्द्र आदि देवताओं को अत्यन्त संतप्त कर दिया था। आदित्य, वषु, रुद्र, मरुदगण, अश्विनीकुमार तथा साध्य- सभी देवता उस दैत्य के पराक्रम से संत्रस्त हो उठे थे। असुरों ने देवताओं के स्थान, विमान, नगर तथा ऋषियों के आश्रम भी छीन लिये थे। वे सभी देवता और ऋषि दीनचित्त हो अजर-अमर एवं सर्वव्यापी देवता भगवान ब्रह्मा की शरण में गये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्‍तर्गत दानधर्म पर्व में स्वर्ण की उत्पत्ति नामक चौरासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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