महाभारत सभा पर्व अध्याय 68 श्लोक 1-16

अष्टषष्टितम (68) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन का क्रोध एवं अर्जुन का उन्‍हें शान्‍त करना, विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण के द्वारा विरोध, द्रौपदी का चीर-हरण एवं भगवान द्वारा उसकी लज्‍जा रक्षा तथा विदुर के द्वारा प्रह्लाद का उदाहरण देकर सभासदों को विरोध के लिये प्रेरित करना


भीमसेन बोले- भैया युधिष्ठिर! जुआरियों के घर में प्राय: कुलटा स्त्रियाँ रहती हैं, किंतु वे भी उन्‍हें दाँव पर लगाकर जुआ नहीं खेलते। उन कुलटाओं के प्रति भी उनके हृदय में दया रहती है। काशिराज ने जो धन उपहार में दिया था एवं और भी जो उत्तम द्रव्‍य वे हमारे लिये लाये थे तथा अन्‍य राजाओं ने भी जो रत्‍न हमें भेंट किये थे, उन सबको और हमारे वाहनों, वैभवों, कवचों, आयुधों, राज्‍य, आपके शरीर तथा हम सब भाइयों को भी शत्रुओं ने जूए के दाँव पर रखवाकर अपने अधिकार में कर लिया। किंतु इसके लिए मेरे मन में क्रोध नहीं हुआ; क्‍योंकि आप हमारे सर्वस्‍व के स्‍वामी हैं। पर द्रौपदी को जो दाँव पर लगाया गया, इसे मैं बहुत ही अनुचित मानता हूँ। यह भोली-भाली अबला पाण्डवों को पतिरूप में पाकर इस प्रकार अपमानित होने के योग्‍य नहीं थी, परंतु आपके कारण ये नीच, नृशंस और अजितेन्द्रिय कौरव इसे नाना प्रकार के कष्‍ट दे रहे हैं। राजन्! द्रौपदी की इस दुर्दशा के लिये में आप पर ही अपना क्रोध छोड़ता हूँ। आपकी दोनों बाहें जला डालूँगा। सहदेव! आग ले आओ।

अर्जुन बोले- भैया भीमसेन! तुमने पहले कभी ऐसी बातें नहीं कही थीं। निश्‍चय ही क्रूरकर्मा शत्रुओं ने तुम्‍हारी धर्मविषयक गौरव बुद्धि को नष्‍ट कर दिया है। भैया! शत्रुओं की कामना सफल न करो; उत्तम धर्म का ही आचरण करो। भला, अपने धर्मात्‍मा ज्‍येष्‍ठ भ्राता का अपमान कौन कर सकता है? महाराज युधिष्ठिर को शत्रुओं ने द्यूत के लिये बुलाया है; अत: ये क्षत्रियव्रत को ध्‍यान में रखकर दूसरों की इच्‍छा से जूआ खेलते हैं। यह हमारे महान् यश का विचार करने वाला है।

भीमसेन ने कहा- अर्जुन! यदि मैं इस विषय में यह न जानता कि इनका यह कार्य क्षत्रिय धर्म के अनुकूल ही है, तो बलपूर्वक प्रज्‍वलित अग्नि में इनकी दोनों बाँहों को एक साथ ही जलाकर राख कर डालता।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पाण्‍डवों को दुखी और पांचाल राजकुमारी द्रौपदी को घसीटी जाती हुई देख धृतराष्ट्रनन्‍दन विकर्ण ने यह कहा- ‘भूमिपालो! द्रौपदी ने जो प्रश्‍न उपस्थित किया है, उसका आप लोग उत्तर दें। यदि इसके प्रश्‍न का ठीक-ठीक विवेचन नहीं किया गया, तो हमें शीघ्र ही नरक भोगना पड़ेगा। पितामह भीष्‍म और‍ पिता धृतराष्ट्र -ये दोनों कुरुवंश के सबसे वृद्ध पुरुष हैं। ये तथा परम बुद्धिमान विदुर जी मिलकर कुछ उत्तर क्‍यों नहीं देते? हम सबके आचार्य भरद्वाजनन्‍दन द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ये दोनों ब्राह्मण कुल के श्रेष्‍ठ पुरुष हैं। ये दोनों भी इस प्रश्‍न पर अपने विचार क्‍यों नहीं प्रकट करते? जो दूसरे राजा लोग चारों दिशाओं से यहाँ पधारे हैं, वे सभी काम और क्रोध को त्‍यागकर अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रश्‍न का उत्तर दें। राजाओ! कल्‍याणी द्रौपदी ने बार-बार जिस प्रश्‍न को दुहराया है, उस पर विचार करके आप लोग उत्तर दें, जिससे मालूम हो जाय कि इस विषय में किसका क्‍या पक्ष (विचार) है।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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