सप्तषष्टितम (67) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 43-54 का हिन्दी अनुवाद
उसम समय भीष्म ने कहा- सौभाग्यशाली बहू! धर्म का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण मैं तुम्हारे इस प्रश्न का ठीक-ठीक विवेचन नहीं कर सकता। जो स्वामी नहीं है वह पराये धन को दाँव पर नहीं लगा सकता, परंतु स्त्री को सदा अपने स्वामी के अधीन देखा जाता है, अत: इन सब बातों पर विचार करने से मुझसे कुछ कहते नहीं बनता। मेरा विश्वास है कि धर्मराज युधिष्ठिर धन-समृद्धि से भरी हुई इस सारी पृथ्वी को त्याग सकते हैं, किंतु धर्म को नहीं छोड़ सकते। इन पाण्डुनन्दन ने स्वयं कहा है कि मैं अपने को हार गया; अत: मैं इस प्रश्न का विवेचन नहीं कर सकता। यह शकुनि मनुष्यों में द्यूतविद्या का अद्वितीय जानकार है। इसी ने कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर प्रेरित करके उनके मन में तुम्हें दाँव पर रखने की इच्छा उत्पन्न की है, परंतु युधिष्ठिर इसे शकुनि का छल नहीं मानते हैं; इसीलिये मैं तुम्हारे इस प्रश्न का विवेचन नहीं कर पाता हूँ। द्रौपदी ने कहा- जूआ खेलने में निपुण, अनार्य, दुष्टात्मा, कपटी तथा द्यूत प्रेमी धूर्तों ने राजा युधिष्ठिर को सभा में बुलाकर जूए का खेल आरम्भ कर दिया। इन्हें जूआ खेलने का अधिक अभ्यास नहीं है। फिर इनके मन में जूए की इच्छा क्यों उत्पन्न की गई? जिनके हृदय की भावना शुद्ध नहीं है, जो सदा छल और कपट में लगे रहते हैं, उन समस्त दुरात्माओं ने मिलकर इन भोले-भोले कुरु-पाण्डव-शिरोमणि महाराज युधिष्ठिर को पहले जूए में जीत लिया है, तत्पश्चात् ये मुझे दाँव पर लगाने के लिये विवश किये गये हैं। ये कुरुवंशी महापुरुष जो सभा में बैठे हुए हैं, सभी पुत्रों और पुत्र वधुओं के स्वामी हैं (सभी के घर में पुत्र और पुत्र-वधुएँ हैं), अत: ये सब लोग मेरे कथन पर अच्छी तरह विचार करके इस प्रश्न का ठीक-ठीक विवेचन करें। वह सभा नहीं है जहाँ वृद्ध पुरुष न हों, वे वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात न बतावें, वह धर्म नहीं है जिसमें सत्य न हो और वह सत्य नहीं है जो छल से युक्त हो। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार द्रौपदी करूणस्वर में बोलकर रोती हुई अपने दीन पतियों की ओर देखने लगी। उस समय दु:शासन ने उसके प्रति कितने ही अप्रिय कठोर एवं कटुवचन कहे। कृष्णा राजस्वलावस्था मे घसीटी जा रही थी, उसके सिर का कपड़ा सरक गया था, वह इस तिरस्कार के योग्य कदापि नहीं थी। उसकी यह दुरवस्था देखकर भीमसेन को बड़ी पीड़ा हुई। वे युधिष्ठिर की ओर देखकर अत्यन्त कुपित हो उठे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में द्रौपदीप्रश्न-विषयक सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज