अष्टषष्टितम (68) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार व्यसनासक्त पुरुष के द्वारा किये हुए किसी भी कार्य को लोग सम्मान नहीं देते हैं। ये पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर द्यूतरूपी दुर्व्यसन में अत्यन्त आसक्त हैं। इन्होंने धूर्त जुआरियों से प्रेरित होकर द्रौपदी को दाँव पर लगा दिया है। सती-साध्वी द्रौपदी समस्त पाण्डवों की समानरूप से पत्नी है, केवल युधिष्ठिर की ही नहीं है। इसके सिवा, पाण्डुकुमार युधिष्ठिर पहले अपने आपको हार चुके थे, उसके बाद उन्होंने द्रौपदी को दाँव पर रखा है। सब दाँवों को जीतने की इच्छा वाले सुबलपुत्र शकुनि ने ही द्रौपदी को दाँव पर लगाने की बात उठायी है। इन सब बातों पर विचार करके मैं द्रुपदकुमारी कृष्णा को जीती हुई नहीं मानता’। यह सुनकर सभी सभासद विकर्ण की प्रशंसा और सुबलपुत्र शकुनि ने निन्दा करने लगे। उस समय वहाँ बड़ा कोलाहल मय गया। उस कोलाहल शान्त होने पर राधानन्दन कर्ण क्रोध से मूर्च्छित हो उसकी सुन्दर बाँह पकड़कर इस प्रकार बोला। कर्ण ने कहा - विकर्ण! इस जगत् में बहुत-सी वस्तुएँ विपरीत परिणाम उत्पन्न करने वाली देखी जाती हैं। जैसे अरणि से उत्पन्न हुई अग्नि उसी को जला देती है, उसी प्रकार कोई-कोई मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है, उसी का विनाश करने वाला बन जाता है। रोग यद्यपि शरीर में ही पलता है, तथापि वह शरीर के ही बल का नाश करता है। पशु घास को ही चरते हैं, फिर भी उसे पैरों से कुचल डालते हैं। उसी प्रकार कुरु-कुल में उत्पन्न होकर भी तुम अपने ही पक्ष को हानि पहुँचाना चाहते हो। विकर्ण! द्रोण, भीष्म, कृप, अश्वत्थामा, महाबुद्धिमान विदुर, धृतराष्ट्र तथा गांधारी -ये तुमसे अधिक बुद्धिमान हैं। द्रौपदी ने बार-बार प्रेरित किया है, तो भी ये सभासद कुछ भी नहीं बोलते हैं; क्योंकि ये सब लोग द्रुपदकुमारी को धर्म के अनुसार जीती हुई समझते हैं। धृतराष्ट्रकुमार! तुम केवल अपनी मूर्खता के कारण आप ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हो; क्योंकि तुम बालक होकर भी भरी सभा में वृद्धों की-सी बातें करते हो। दुर्योधन के छोटे भाई! तुम्हें धर्म के विषय में यथार्थ ज्ञान नहीं है। तुम जो जीती हुई द्रौपदी को नहीं जीती हुई बता रहे हो, इससे तुम्हारे मन्दबुद्धि होने का परिचय मिलता है। धृतराष्ट्रकुमार! तुम कृष्णा को नहीं जीती हुई कैसे मानते हो? जबकि पाण्डवों के बड़े भाई युधिष्ठिर ने द्यूत सभा के बीच अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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