महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 139-149

एकोनत्रिंश (29) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 139-149 का हिन्दी अनुवाद


वेननन्दन पृथु को देखकर समस्त प्रजाओं ने एक साथ कहा कि 'हम इनमें अनुरक्त हैं’ इस प्रकार प्रजा का रंजन करने के कारण ही उनका नाम 'राजा’ हुआ। पृथृ के शासन काल में पृथ्वी बिना जोते ही धान्य उत्पन्न करती थी, वृक्षों के पुट-पुट में मधु (रस) भरा था और सारी गौएँ, एक-एक दोन दूध देती थीं। मनुष्य नीरोग थे। उनकी सारी कामनाएँ सर्वथा परिपूर्ण थीं और उन्हें कभी किसी चीज से भय नहीं होता था। सब लोग इच्छानुसार घरों या खेतों में रह लेते थे। जब वे समुद्र की ओर यात्रा करते, उस समय उसका जल स्थिर हो जाता था। नदियों की बाढ़ शान्त हो जाती थी। उनके रथ की ध्वजा कभी भग्न नहीं होती थी। राजा पृथु ने अश्वमेध नामक महायज्ञ में चार सौ हाथ ऊँचे इक्कीस सुवर्णमय पर्वत ब्राह्मणों को दान किये थे।

सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढ़े-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र की अपेक्षा बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक न करो। सृंजय! तुम चुपचाप क्या सोच रहे हो। राजन्! मेरी इस बात को क्यों नहीं सुनते हो? जैसे मरणासन्न पुरुष के ऊपर अच्छी तरह प्रयोग में लायी हुई औषधि व्यर्थ जाती है, उसी प्रकार मेरा यह सारा प्रवचन निष्फल तो नहीं हो गया?'

सृंजय ने कहा- नारद! पवित्र गन्ध वाली माला के समान विचित्र अर्थ से भरी हुई आपकी इस वाणी को मैं सुन रहा हूँ। पुण्यात्मा महामनस्वी और कीर्तिशाली राजर्षियों के चरित्र से युक्त आपका यह वचन सम्पूर्ण शोकों का विनाश करने वाला है। महर्षि नारद! आपने जो कुछ कहा है, आपका वह उपदेश व्यर्थ नहीं गया है। आपका दर्शन करके ही मैं शोकरहित गया हूँ। ब्रह्मवादी मुने! मैं आपका यह तृत्प नहीं हो रहा हूँ और अमृतपान के समान उससे तृप्त नहीं हा रहा हो रहा हूँ। प्रभो! आपका दर्शन अमोध है। मैं पुत्र शोक के संताप से दग्ध हो रहा हूँ। यदि आप मुझ पर कृपा करें तो मेरा पुत्र फिर जीवित हो सकता है और आपके प्रसाद से मुझे पुनः पुत्र-मिलन का सुख सुलभ हो जायेगा।

नारद जी कहते हैं- राजन् तुम्हारे यहाँ जो यह सुवर्णष्ठीवी नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था और जिसे पर्वत मुनि ने तुम्हें दिया था, वह तो चला गया। अब तो चला गया। अब मे पुनः हिरण्यनाभ नामक नाम एक पुत्र दे रहा हूँ, जिसकी आयु एक हजार वर्षों की होगी।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में सोलह राजाओं का उपाख्‍यानविषयक[1] उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह षोडश राजाओं का उपाख्यान द्रोणपर्व के पचपनवें अध्याय से लेकर इकहत्तरवें अध्याय तक पहले आ चुका है। उसी को कुछ संक्षिप्त करके पुन: यहाँ लिया गया है। पहले का परशुरामचरित्र इसमें संगृहीत नहीं हुआ है और पहले जो राजा पौरव का चरित्र आया था, उसके स्थान में यहा अंगराज बृहद्रथ के चरित्र का वर्णन है, कथाओं के क्रम में उलटा-पलटी हो गयी है। श्लोकों के पाठों में कई जगह भेद दिखायी देता है।

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