अष्टम (8) अध्याय: सौप्तिक पर्व
महाभारत: सौप्तिक पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 116-134 का हिन्दी अनुवाद
कुछ लोग कहने लगे- 'भाइयों! रोष में भरे हुए धृतराष्ट्र के पुत्रों ने भी रणभूमि में हमारी वैसी दुर्गति नहीं की थी, जो आज इन क्रूरकर्मा राक्षसों ने हम सोये हुए लोगों की कर डाली है। आज कुन्ती के पुत्र हमारे पास नहीं हैं, इसीलिये हम लोगों का यह संहार किया गया है। कुन्तीपुत्र अर्जुन को तो असुर, गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षस कोई भी नहीं जीत सकते; क्योंकि साक्षात श्रीकृष्ण उनके रक्षक हैं। वे ब्राह्मण भक्त, सत्यवादी, जितेन्द्रिय तथा सम्पूर्ण भूतों पर दया करने वाले हैं। कुन्तीनन्दन अर्जुन सोये हुए, असावधान, शस्त्रहीन, हाथ जोड़े हुए, भागते हुए अथवा बाल खोलकर दीनता दिखाते हुए मनुष्य को कभी नहीं मारते हैं। आज क्रूरकर्मा राक्षसों द्वारा हमारी यह भयंकर दुर्दशा की गयी है।' इस प्रकार विलाप करते हुए बहुत-से मनुष्य रणभूमि में सो रहे थे। तदनन्तर दो ही घड़ी में कराहते और विलाप करते हुए मनुष्यों का वह भयंकर कोलाहल शान्त हो गया। राजन! खून से भीगी हुई पृथ्वी पर गिरकर वह भयानक धूल क्षणभर में अदृश्य हो गयी। जैसे प्रलय के समय क्रोध में भरे हुए पशुपति रुद्र समस्त पशुओं (प्राणियों) का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार कुपित हुए अश्वत्थामा ने ऐसे सहस्रों मनुष्यों को भी मार डाला, जो किसी प्रकार प्राण बचाने के प्रयत्न में लगे हुए थे, एकदम घबराये हुए थे और सारा उत्साह खो बैठे थे। कुछ लोग एक दूसरे से लिपटकर सो रहे थे, दूसरे भाग रहे थे, तीसरे छिप गये थे और चौथी श्रेणी के लोग जूझ रहे थे, उन सबको द्रोणकुमार ने वहाँ मार गिराया। एक ओर लोग आग से जल रहे थे और दूसरी ओर अश्वत्थामा के हाथ से मारे जाते थे, ऐसी दशा में वे सब योद्धा स्वयं ही एक दूसरे को यमलोक भेजने लगे। राजेन्द्र! उस रात का आधा भाग बीतते-बीतते द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने पाण्डवों की उस विशाल सेना को यमराज के घर भेज दिया। वह भयानक रात्रि निशाचर प्राणियों का हर्श बढ़ाने वाली थी और मनुष्यों, घोड़ों तथा हाथियों के लिये अत्यंत विनाशाकारिणी सिद्ध हुई। वहाँ नाना प्रकार की आकृति वाले बहुत-से राक्षस और पिशाच मनुष्यों के मांस खाते और खून पीते दिखायी देते थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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