अष्टम (8) अध्याय: सौप्तिक पर्व
महाभारत: सौप्तिक पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 96-115 का हिन्दी अनुवाद
प्रभो! वे भागे हुए सैनिक एक दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। दैववश उनकी बुद्धि मारी गयी थी। वे हा तात! हा पुत्र! कहकर अपने स्वजनों को पुकार रहे थे। अपने सगे संबंधियों को भी छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओं में भागते हुए योद्धाओं के नाम और गोत्र को पुकार-पुकारकर लोग परस्पर बुला रहे थे। कितने ही मनुष्य हाहाकार करते हुए धरती पर पड़ गये थे। युद्ध के लिये उन्मत्त हुआ द्रोणपुत्र अश्वत्थामा उन सब को पहचान-पहचान कर मार गिराता था। बारंबार उसकी मार खाते हुए दूसरे बहुत-से क्षत्रिय भय से पीड़ित और अचेत हो शिविर से बाहर निकलने लगे। प्राण बचाने की इच्छा से भयभीत हो शिविर से निकले हुए उन क्षत्रियों को कृतवर्मा और कृपाचार्य ने दरवाजे पर ही मार डाला। उनके यन्त्र और कवच गिर गये थे। वे बाल खोले, हाथ जोड़े, भयभीत हो थरथर कांपते हुए पृथ्वी पर खड़े थे, किंतु उन दोनों ने उनमें से किसी को भी जीवित नहीं छोड़ा। शिविर से निकला हुआ कोई भी क्षत्रिय उन दोनों के हाथ से जीवित नहीं छूट सका। महाराज! कृपाचार्य तथा दुबुर्द्धि कृतवर्मा दोनों ही द्रोणपुत्र अश्वत्थामा का अधिक-से-अधिक प्रिय करना चाहते थे; अत: उन्होंने उस शिविर में तीन ओर से आग लगा दी। महाराज! उससे सारे शिविर में उजाला हो गया और उस उजाले में पिता को आनंदित करने वाला अश्वत्थामा हाथ में खड्ग लिये एक सिद्धहस्त योद्धा की भाँति बेखट के विचरने लगा। उस समय कुछ वीर क्षत्रिय आक्रमण कर रहे थे और दूसरे पीठ दिखाकर भागे जा रहे थे। ब्राह्मण शिरोमणि अश्वत्थामा ने उन दोनों ही प्रकार के योद्धाओं को तलवार से मारकर प्राणहीन कर दिया। क्रोध से भरे हुए शक्तिशाली द्रोणपुत्र ने कुछ योद्धाओं को तिनके डंठलों की भाँति बीच से ही तलवार से काठ गिराया। भरतश्रेष्ठ! अत्यन्त घायल हो पृथ्वी पर पड़े थे। उनमें से बहुतेरे कबंध (धड़) उठकर खड़े हो जाते और पुन: गिर पड़ते थे। भारत! उसने आयुधों और भुजबंदों सहित बहुत-सी भुजाओं तथा मस्तकों को काट डाला। हाथी की सूँड के समान दिखायी देने वाली जाँघों, हाथों और पैरों के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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