महाभारत सभा पर्व अध्याय 24 श्लोक 10-24

चतुर्विंश (24) अध्‍याय: सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 10-24 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन की गर्जना सुनकर मगध के लोग भयभीत होकर सोचने लगे कि ‘कहीं हिमालय पहाड़ तो नहीं फट पड़ा? कहीं पृथ्वी तो विदीर्ण नहीं हो रही है?’ तदनन्तर शत्रुओं का दमन करने वाले वे तीनों वीर रात में राजा जरासंध के प्राणहीन शरीर को सोते हुए के समान राजभवन के द्वार पर छोड़कर वहाँ से चल दिये। श्रीकृष्ण ने जरासंध के ध्वजा पताकामण्डित दिव्य रथ को जोत लिया और उस पर दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन को बिठाकर पहाड़ी खोह के पास जा वहाँ कैद में पड़े हुए अपने बान्धव स्वरूप समस्त राजाओं को छुड़ाया। उस महान् भय से छूटे हुए रत्नभोगी नरेशों ने भगवान श्रीकृष्ण से मिलकर उन्हें विविध रत्नों से युक्त कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण क्षतरहित और अस्त्र शस्त्रों से सम्पन्न थे। वे शत्रु पर विजय पा चुके थे, उस अवस्था में वे उस दिव्य रथ पर आरूढ़ हो कैद से छूटे हुए राजाओं के साथ गिरिव्रज नगर से बाहर निकले। उस रथ का नाम था सोदर्यवान्, उसमें दो महारथी योद्धा एक साथ बैठकर युद्ध कर सकते थे, इस समय भगवान श्रीकृष्ण उसके सारथि थे। उस रथ में बार-बार शत्रुओं पर आघात करने की सुविधा थी तथा वह दर्शनीय होने के साथ ही समस्त राजाओं के लिये दुर्जय था। भीम और अर्जुन- ये दो योद्धा उस रथ पर बैठे थे, श्रीकृष्ण सारथि का काम सँभाल रहे थे, सम्पूर्ण धनुर्धर वीरों के लिये भी उसे जीतना कठिन था।

इन दोनों रथियों के द्वारा उस श्रेष्ठ रथ की ऐसी शोभा हो रही थी मानो इन्द्र और विष्णु एक साथ बैठकर तारकामय संग्राम में विचर रहे हों। वह रथ तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्तिमान् था। उसमें क्षुद्र घंटिकाओं से युक्त झालरें लगी थीं। उसकी घर्घराहट मेघ की गम्भीर गर्जना के समान जान पड़ती थी। वह शत्रुओं का विघातक और विजय प्रदान करने वाला था। उसी रथ पर सवार हो उसके द्वारा श्रीकृष्ण ने उस समय यात्रा की। यह वही रथ था, जिसके द्वारा इन्द्र ने निन्यानवे दानवों का वध किया था। उस रथ को पाकर वे तीनों नरश्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुए। तदनन्तर दोनों फुफेरे भाइयों के साथ रथ पर बैठे हुए महाबाहु श्रीकृष्ण को देखकर मगध के निवासी बड़े विस्मित हुए। वह रथ वायु के समान वेगशाली था, उसमें दिव्य घोड़े जुते हुए थे। भारत! श्रीकृष्ण के बैठ जाने से उस दिव्य रथ की बड़ी शोभा हो रही थी। उस उत्तम रथ पर देवनिर्मित ध्वज फहराता रहता था, जो रथ से अछूता था (रथ के साथ उसका लगाव नहीं था, वह बिना आधार के ही उसके ऊपर लहराया करता था)। इन्द्रधनुष के समान प्रकाशमान बहुरंगी एवं शोभाशाली वह ध्वज एक योजन दूर से ही दीखने लगता था। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने गरुड़ जी का स्मरण किया। गरुड़ जी उसी क्षण वहाँ आ गये। उस रथ की ध्वजा में बहुत से भूत मुँह बोय हुए विकट गर्जना करते रहते थे। उन्हीं के साथ सर्पभोजी गरुड़ जी भी उस श्रेष्ठ रथ पर स्थित हो गये। उनके द्वारा वह ध्वज ऊँचे उठे हुए चैत्य वृक्ष के समान सुशोभित हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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