महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 69 श्लोक 96-105

एकोनसप्ततिम (69) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्ततिम अध्याय: श्लोक 96-105 का हिन्दी अनुवाद

इस युग में स्त्रियां प्रायः विधवा होती हैं, प्रजा क्रूर हो जाती है, बादल कहीं कहीं पानी बरसाते हैं और कहीं-कहीं ही धान उत्पन्न होता है। जब राजा दण्डनीति में प्रतिष्ठित होकर प्रजा की भली-भाँति रक्षा करना नहीं चाहता है, उस समय इस पृथ्वी के सारे रस ही नष्ट हो जाते हैं। राजा ही सत्ययुग की सृष्टि करने वाला होता है, और राजा ही त्रेता, द्वापर तथा चौथे युग कलि की भी सृष्टि का कारण है। सत्ययुग की सृष्टि करने से राजा को अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति होती है। त्रेता की सृष्टि करने से राजा को स्वर्ग तो मिलता है; परंतु वह अक्षय नहीं होता। द्वापर का प्रसार करने से वह अपने पुण्य के अनुसार कुछ काल तक स्वर्ग का सुख भोगता है; परंतु कलियुग की सृष्टि करने से राजा को अत्यन्त पाप का भागी होना पड़ता है। तदनन्तर वह दुराचारी राजा उस पाप के कारण बहुत वर्षों तक नरक में निवास करता है। प्रजा के पाप में डूबकर वह अपयश और पाप के फलस्वरूप् दुख का ही भागी होता है। अतः विज्ञ क्षत्रिय नरेश को चाहिये कि वह सदा दण्डनीति को सामने रखकर उसके द्वारा अप्राप्त वस्तु को पाने की इच्छा करें और प्राप्त हुई वस्तु की रक्षा करे। इसके द्वारा प्रजा के योगक्षेम सिद्ध होते है, इसमें संशय नहीं है। यदि दण्डनीति को ठीक-ठीक प्रयोग किया जाए तो वह बालक की रक्षा करने वाले माता-पिता के समान लोक की सुन्दर व्यवस्था करने वाली और धर्ममर्यादा तथा जगत की रक्षा में समर्थ होती है। नरश्रेष्ठ! तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि समस्त प्राणी दण्डनीति के आधार पर टिके हुए है। राजा दण्डनीति से युक्त हो उसी के अनुसार चले-यही उसका सबसे बडा धर्म है। अतः कुरुनन्दन! तुम दण्डनीति का आश्रय ले धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करो। यदि नीतियुक्त व्यवहार से रहकर प्रजा की रक्षा करोंगे तो स्वर्ग को जीत लोगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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