महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 69 श्लोक 77-95

एकोनसप्ततिम (69) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्ततिम अध्याय: श्लोक 77-95 का हिन्दी अनुवाद

इस प्रकार दण्डनीति के प्रभाव से जब चारों वर्णों के लोग अपने-अपने कर्मों में संलग्न रहते हैं, धर्ममर्यादा में संकीर्णता नहीं आने पाती और प्रजा सब ओर से निर्भय एवं कुशलपूर्वक रहने लगती है, तब तीनों वर्णों के लोग विधिपूर्वंक स्वास्थ्य-रक्षा का प्रयत्न करते हैं। युधिष्ठिर! इसी में मनुष्यों का सुख निहित है, यह तुम्हें ज्ञात होना चाहिये। काल राजा का कारण है अथवा राजा काल का, ऐसा संशय तुम्हें नहीं होना चाहिये। यह निश्चित है कि राजा ही काल का कारण होता है। जिस समय राजा दण्डनीति का पूरा-पूरा एवं ठीक प्रयोग करता है, उस समय पृथ्वी पर पूर्ण रूप से सत्ययुग का आरम्भ हो जाता है। राजा से प्रभावित हुआ समय ही सत्ययुग कर सृष्टि कर देता है। उस सत्ययुग में धर्म-ही-धर्म रहता है, अधर्म का कहीं नाम-निशान भी नहीं दिखायी देता तथा किसी भी वर्ण की अधर्म में रुचि नहीं होती। उस समय प्रजा के योगक्षेम स्वतः सिद्ध होते रहते हैं तथा सर्वत्र वैदिक गुणों का विस्तार हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है। सभी ऋतुएँ सुखदायिनी और आरोग्य बढ़ाने वाली होती हैं।

मनुष्यों के स्वर, वर्णं और मन स्वच्छ एवं प्रसन्न होते हैं। इस जगत् में उस समय रोग नहीं होते, कोई भी मनुष्य अल्पायु नहीं दिखायी देता, स्त्रियाँ विधवा नहीं होती हैं तथा कोई भी मनुष्य दीन-दुखी नहीं होता है। पृथ्वी पर बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा होता है, ओषधियाँ भी स्वतः उत्पन्न होती हैं; उनकी छाल, पत्ते, फल और मूल सभी शक्तिशाली होते हैं। सत्ययुग में अधर्म का सर्वथा अभाव हो जाता है। उस समय केवल धर्मं-ही-धर्म रहता है। युधिष्ठिर! इन सबको सत्ययुग के धर्म समझो। जब राजा दण्डनीति के एक चैथाई अंश को छोड़कर केवल तीन अंशो का अनुसरण करता है, तब त्रेतायुग प्रारम्भ हो जाता हैं। उस समय अशुभ का चौथा अंश पुण्य के तीन अंशो के पीछे लगा रहता है। उस अवस्था में पृथ्वी पर जोतने-बोने से ही अन्न पैदा होता है। ओषधियाँ भी उसी तरह पैदा होती है। जब राजा दण्डनीति के आधे भाग को त्यागकर आधे का अनुसरण करता है, तब द्वापर नामक युग का आरम्भ हो जाता है। उस समय पाप के दो भाग पुण्य के दो भागों का अनुसरण करते हैं। पृथ्वी पर जोतने-बोने से ही अनाज लेता है; परंतु आधी फसल में ही फल लगते हैं, आधी मारी जाती है। जब राजा समूची दण्डनीति का परित्याग करके अयोग्य उपायों द्वारा प्रजा को कष्ट देने लगता है, तब कलियुग का आरम्भ हो जाता है। कलियुग में अधर्म तो अधिक होता है; परंतु धर्म का पालन कहीं नहीं देखा जाता। सभी वर्णों का मन अपने धर्म से च्युत हो जाता है। शूद्र भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह करते हैं और ब्राह्मण सेवा वृत्ति से। प्रजा के योगक्षेम का नाश हो जाता है और सब और वर्णसंकरता फैल जाती है। वैदिक कर्म विधिपूर्वक सम्पन्न न होने के कारण गुणहीन हो जाते हैं। प्रायः सभी ऋतुएँ सुखरहित तथा रोग प्रदान करने वाली हो जाती है। मनुष्यों के स्वर, वर्ण और मन मलिन हो जाते है। सबको रोग व्याधि सताने लगती है और लोग अल्पायु होकर छोटी अवस्था में ही मरने लगते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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