त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद
देवताओं ने खून से भीगी हुई इस पृथ्वी को एकार्णव में निमग्न करके दैत्यों का संहार कर डाला और स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया। भारत! इसी प्रकार पृृथ्वी को भी अपने अधीन करके देवताओं ने तीनों लोकों में शालावृक नाम से विख्यात उन अट्ठासी हजार ब्राह्मणों का भी वध कर डाला, जो वेदों के पारंगत विद्वान् थे और अभिमान से मोहित होकर दानवों की सहायता के लिये उनके पक्ष में जा मिले थे। जो धर्म का विनाश चाहते हुए अधर्म के प्रवर्तक हो रहे हों, उन दुरात्माओं का वध करना ही उचित है। जैसे देवताओं ने उद्दण्ड दैत्यों का विनाश कर डाला था। यदि एक पुरुष को मार देने से कुटुम्ब के शेष व्यक्तियों का कष्ट दूर हो जाय और एक कुटुम्ब का नाश कर देने से सारे राष्ट्र में सुख और शान्ति छा जाय तो वैसा करना सदाचार या धर्म का नाशक नहीं है। नरेश्वर! किसी समय धर्म ही अधर्म रूप हो जाता है और कहीं अधर्मरूप दीखने वाला कर्म ही धर्म बन जाता है; इसलिये विद्वान् पुरुष को धर्म और अधर्म का रहस्य अचछी तरह समझ लेना चाहिये। पाण्डुनन्दन! तुम वेद-शास्त्रों के ज्ञाता हो, तुमने श्रेष्ठ पुरुषों के उपदेश सुने हैं; इसलिये अपने हृदय को स्थिर करो, शोक से विचलित न होने दो। भारत! तुमने तो उसी मार्ग का अनुसरण किया है, जिस पर देवता लोग पहले से चल चुके हैं। पाण्डवशिरोमणे! तुम्हारे-जैसे लोग नरक में नहीं गिरेंगे। शत्रु संतापी नरेश! तुम इन भाइयों और सुहृदों को आश्वासन दो। जो पुरुष हृदय में पाप की भावना रखकर किसी पापकर्म में प्रवृत्त होता है, उसे करते हुए भी उसी भावना से भावित रहता है तथा पापकर्म करने के पश्चात् भी लज्जित नहीं होता, उसमें वह सारा पापपूर्णरूप से प्रतिष्ठित हो जाता है, ऐसा शास्त्र का कथन है। उसके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है तथा प्रायश्चित्त से भी उसके पाप कर्म का नाश नहीं होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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