अष्अनवत्यधिकद्विशततम (298) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्अनवत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 27-41 का हिन्दी अनुवाद
जैसे जन्म का अंधा रास्ते को नही देख पाता, वैसे ही शिश्नोदरपरायण एवं अज्ञान से आवृत जीव मायारूप कुहासा से आच्छन्न होने के कारण मोक्ष मार्ग को नहीं समझ पाता है। जैसे वैश्य समुद्रमार्ग से व्यापार करने जाकर अपने मूलधन के अनुसार द्रव्य कमाकर लाता है, उसी प्रकार संसार-सागर में व्यापार करने वाला जीव अपने कर्म एवं विज्ञान के अनुरूप गति पाता है। दिन और रात्रिमय संसार में बुढ़ापा का रूप धारण करके घूमती हुई मृत्यु समस्त प्राणियों को उसी प्रकार खाती रहती है, जैसे सर्प हवा पीया करता है। जीव जगत में जन्म लेकर अपने पूर्वकृत कर्मों का ही फल भोगता है; पूर्वजन्म में कुछ किये बिना यहाँ कोई भी किसी इष्ट या अनिष्ट फल को नही पाता है। मनुष्य सोता हो, बैठा हो, चलता हो या विषय भोग में लगा हो, उसके शुभाशुभ कर्म सदा उसे प्राप्त होते रहते हैं। जैसे समुद्र के परले पार पहुँचकर पुन: कोई उसमें तैरने का विचार नहीं करता, उसी प्रकार संसार-सागर से पार हुए मनुष्य का फिर उसमें पड़ना अर्थात वापस आना दुर्लभ दिखायी देता है। जैसे गम्भीर जल में पड़ी हुई नौका नाविक द्वारा रस्सी से खींची जाने पर उसके मनोभाव के अधीन होकर चलती है, उसी प्रकार यह जीव इस शरीररूपी नौका को अपने मन के अभिप्रायानुसार चलाना चाहता है। जैसे बहुत-सी नदियाँ सब ओर से आकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार योग से वश में किया हुआ मन सदा के लिये मूल प्रकृति में लीन हो जाता है। जिनका मन नाना प्रकार के स्नेह-बन्धनों में जकड़ा हुआ है, वे प्रकृति में स्थित हुए जीव जल में ढह जाने वाले बालू के मकान की भाँति महान दुख से नष्टप्राय हो जाते हैं। शरीर ही जिसका घर है, जो बाहर-भीतर की पवित्रता को ही तीर्थ मानता है तथा बुद्धिपूर्वक कल्याण के मार्ग पर चलता है, उस देहधारी जीव को इहलोक और परलोक में भी सुख मिलता है। क्रियाओं का विस्तार क्लेशदायक होता है और संक्षेप सुखदायक है। सभी कर्म विस्तार परार्थरूप अर्थात मन और इन्द्रियों की तृप्ति के लिये होते हैं, परंतु त्याग अपने लिये हितकर माना गया है। कोई-न-कोइ संकल्प (मनोरथ) लेकर ही लोग मित्र बनते हैं, कुटुम्बी जन भी किसी हेतु से ही नाता रखते हैं, पत्नी, पुत्र और सेवक सभी अपने-अपने स्वार्थ का ही अनुसरण करते हैं। माता और पिता भी परलोक-साधन में किसी की कुछ सहायता नहीं कर सकते। परलोक के पथ में तो अपना किया हुआ दान अर्थात त्याग ही राह खर्च का काम देता है। प्रत्येक जीव अपने कर्म का ही फल भोगता है। माता, पिता, पुत्र, भ्राता, भार्या और मित्रगण - ये सब सुवर्ण के सिक्कों के स्थान पर रखी हुई लाख की मुद्रा के समान देखे जाते हैं। पूर्वजन्म के किये हुए सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्म जीव का अनुसरण करते हैं। इस प्रकार प्राप्त हुई परिस्थिति को अपने कर्मों का फल जानकर जिसका मन अन्तर्मुख हो गया है, वह अपनी बुद्धि को वैसी शुभ प्रेरणा देता है जिससे भविष्य में दुख न भोगना पड़े। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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