महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 269 श्लोक 26-39

एकोनसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (269) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 26-39 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद


उपवास न करें, किंतु बहुत अधिक भी न खायें, सदा भोजन के लिये लालायित न रहें। सज्‍जनों का संग करे और जीवननिर्वाह के लिये जितना आवश्‍यक हो, उतना ही अन्न पेट में डालें- इससे उदर द्वार का संरक्षण होता है। वीर युधिष्ठिर! अपनी धर्मपत्नि के साथ ही विहार करे, परायी स्त्री के साथ नहीं, अपनी स्त्री को भी जब तक वह ऋतुस्‍नाता न हुई हो, समागम के लिये अपने पास न बुलायें और मन में एक पत्निव्रत धारण करे। ऐसा करने से उसके उपस्‍थ-द्वार की रक्षा हो सकती है। जिस मनीषी पुरुष के उपस्‍थ, उदर, हाथ-पैर और वाणी- ये सभी द्वार पूर्णत: रक्षित हैं, वही वास्‍तव में ब्राह्मण है। जिसके ये द्वार सुरक्षित नहीं हैं, उसके सारे शुभ-कर्म निष्‍फल होते हैं, ऐसे मनुष्‍य को तपस्‍या, यज्ञ तथा आत्‍मचिन्‍तन से क्‍या लाभ हो सकता है? जिसके पास वस्‍त्र के नाम पर एक लंगोटी मात्र है, ओढ़ने के लिये एक चादर तक नहीं है, जो बिना बिछौने के ही सोता है, बाँहों का ही तकिया लगाता है और सदा शान्‍तभाव से रहता है, उसी को देवता ब्राह्मण मानते हैं।

जो मुनि शीत-उष्‍ण आदि सम्‍पूर्ण द्वन्‍द्वरूपी उपवनों में अकेला ही आनन्‍दपूर्वक रहता है और दूसरों का चिन्‍तन नहीं करता, उसे देवता लोग ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) समझते हैं। जिसको इस सम्‍पूर्ण जगत् की नश्वरता का ज्ञान है, जो प्रकृति और उसके विकारों से परिचित है तथा जिसे सम्‍पूर्ण भूतों की गति का ज्ञान है, उसे देवता लोग ब्रह्मज्ञानी मानते हैं। जो सम्‍पूर्ण भूतों से निर्भय है, जिससे समस्‍त प्राणी भय नहीं मानते हैं तथा जो सब भूतों का आत्‍मा है, उसी को देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं। परंतु मूढ़ मानव दान और यज्ञ-कर्म के फल के सिवा योग आदि के फल का अनुमोदन नहीं करते। वे उन मोक्षप्रद समस्‍त साधनों के महत्त्व को न जानने के कारण स्‍वर्ग आदि अन्‍य फलों में ही रुचि रखते हैं। किंतु उस पुराण, शाश्‍वत एवं ध्रुव यौगिक सदाचार का आश्रय लेकर अपने कर्तव्‍य कर्मों में परायण रहने वाले ज्ञानियों का तप उत्तरोत्तर तीव्रता को प्राप्‍त होता है।

प्रवृतिमार्गी मनुष्‍य योगशास्‍त्र के सूत्रों में कथित यम-नियमादि का अनुष्‍ठान नहीं कर सकते। वह यौगिक आचार आपत्तिशून्‍य, प्रमादरहित है। वह कामादि से पराभव को नहीं प्राप्‍त होता है। योगशास्‍त्र में कथित कर्मश्रेष्‍ठफल देने वाले, उन्‍नति करने वाले एवं स्‍थायी हैं; तो भी प्रवृतिमार्गी मनुष्‍य उनको गुणरहित (निष्‍फल) और अस्थिर समझते हैं। गुणों के कार्यभूत जो यज्ञ-यागादि हैं, उनके स्‍वरूप और विधि-विधान को समझना बहुत कठिन है। यदि अनुष्‍ठान भी किया जाय तो भी उनसे नाशवान फल की ही प्राप्ति होती है। इन सब बातों को तुम भी देखते और समझते हो। स्यूमरश्मि ने कहा- भगवान! 'कर्म करो' और 'कर्म छोड़ो' ये जो परस्‍पर विरुद्घ दो स्‍पष्‍ट मार्ग हैं, इनका उपदेश करने वाले वेद की प्रमाणिकता का निर्वाह कैसे हो? तथा त्‍याग कैसे सफल होता है? यह आप मुझे बताइये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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