एकोनसप्तत्यधिकद्विशततम (269) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 40-51 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद
जिस-जिस आश्रम में जो-जो धर्म विहित है, वहाँ-वहाँ उसी-उसी धर्म की उपासना करनी चाहिये। उस-उस स्थान पर उसी-उसी धर्म का आचरण करने से ही सिद्धि का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। जैसे एक जगह जाने वाली नाव में दूसरी जगह जाने वाली नाव बाँध दी जाय तो वह जल के स्त्रोत से अपहृत हो किसी को गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुँचा सकती, उसी प्रकार पूर्वजन्म के कर्मों की वासना से बँधी हुई हमारी कर्ममयी नौका हम कुबुद्धि पुरुषों को कैसे भवसागर से पार उतारेगी? भगवन्! यह आप मुझे बताइये, मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे उपदेश दीजिये। वास्तव में इस जगत के भीतर न कोई त्यागी है न संतुष्ट, न शोकहीन है न नीरोग। न तो कोई पुरुष कर्म करने की इच्छा से सर्वथा शून्य है, न आसक्ति से रहित है और न सर्वथा कर्म का त्यागी ही है। आप भी हम लोगों की ही भाँति हर्ष और शोक प्रकट करते हैं। समस्त प्राणियों के समान आपके समक्ष भी शब्द, स्पर्श आदि विषय उपस्थित और गृहीत होते हैं। इस प्रकार चारों वर्णों और आश्रमों के लोग सभी प्रवृतियों में एकमात्र सुख का ही आश्रय लेते हैं- उसी को अपना लक्ष्य बनाकर चलते हैं, अत: सिद्धान्तत: अक्षय सुख क्या है, यह बताइये। कपिल ने कहा- जो-जो शास्त्र जिस-जिस अर्थ का आचरण-प्रतिपादन करता है, वह-वह सभी प्रवृतियों में सफल होता है। जिस साधन का जहाँ अनुष्ठान होता है, वहाँ-वहाँ अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। जो ज्ञान का अनुसरण करता है, ज्ञान उसके समस्त संसार बन्धन का नाश कर देता है। बिना ज्ञान की जो प्रवृति होती है, वह प्रजा को जन्म और मरण के चक्कर में डालकर उसका विनाश कर देती है। आप लोग ज्ञानी हैं, यह बात सर्वविदित है। आप सब ओर से नीरोग भी हैं; परंतु क्या आप लोगों में से कोई भी किसी भी काल में एकात्मता को प्राप्त हुआ है? (जब एकमात्र अद्वितीय आत्मा अर्थात् ब्रह्म की ही सत्ता का सर्वत्र बोध होने लगे, तब उसे एकात्मता का ज्ञान कहते हैं)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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