अष्टपंचादधिकद्विशततम (258) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टपंचादधिकद्विशततम श्लोक 38-42 का हिन्दी अनुवाद
पहले मृत्यु के जो अश्रु बिन्दु गिरे थे, वे ही ज्वर आदि रोग हो गये; जिनके द्वारा मनुष्यों का शरीर रूग्ण हो जाता है। वह मृत्यु सभी प्राणियों की आयु समाप्त होने पर उनके पास आती है। अत: राजन्! तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। इस विषय को बुद्धि के द्वारा समझो। राजसिंह! जैसे इन्द्रियाँ जाग्रत-अवस्था के अन्त में सुषुप्ति के समय निष्क्रिय होकर विलीन हो जाती हैं और जाग्रत-अवस्था आने पर पुन:लौट आती हैं, उसी प्रकार सारे प्राणी ही जीवन के अन्त में परलोक में जाकर कर्मों के अनुसार देवताओं के तुल्य अथवा नरकगामी होते हैं और कर्मों के क्षीण होने पर इस जगत में लौटकर पुन: मनुष्य आदि योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं। भयंकर शब्द करने वाला महान् बलशाली भयानक प्राणवायु ही समस्त प्राणियों का प्राणस्वरूप हैं। वही देहधारियों के देह का नाश होने पर नाना प्रकार के रूपों या शरीरों को प्राप्त होता है। अत: इस शरीर के भीतर देवाधिदेव वायु (प्राण) ही सबसे श्रेष्ठ है। सभी देवता पुण्य क्षय होने पर इस लोक में आकर मरणधर्मा नाम से विभूषित होते हैं और सभी मरणधर्मा मनुष्य पुण्य के प्रभाव से मृत्यु के पश्चात् देवसंज्ञा से संयुक्त होते हैं। अत: राजसिंह! तुम अपने पुत्र के शोक न करो। तुम्हारा पुत्र स्वर्गलोक में जाकर आनन्द भोग रहा है। इस प्रकार ब्रह्मा जी ने ही प्राणियों की मृत्यु रची है। वह मृत्यु ठीक समय आने पर यथावत् रूप से जीवों का संहार करती है। उसके जो अश्रुपात हैं, वे ही मृत्युकाल प्राप्त होने पर रोग बनकर इस जगत् के प्राणियों का संहार करते हैं। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में मृत्यु और प्रजापति के संवादका उपक्रमविषक दो सौ अट्ठावनवॉ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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