पंचदश (15) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व : पंचदश अध्याय: श्लोक 52-58 का हिन्दी अनुवाद
राजन्! शत्रुओं का वध करते समय आपके मन में दीनता नहीं आनी चाहिये। भारत! शत्रुओं का वध करने से कर्ता को कोई पाप नहीं लगता। जो हाथ में हथियार लेकर मारने आया हो, उस आततायी को जो स्वयं भी आततायी बनकर मार डाले, उससे वह भ्रूण-हत्या का भागी नहीं होता; क्योंकि मारने के लिये आये हुए उस मनुष्य का क्रोध ही उसका वध करने वाले के मन में भी क्रोध पैदा कर देता है। समस्त प्राणियों का अन्तरात्मा अवध्य है, इसमें संशय नहीं है। जब आत्मा का वध हो ही नहीं सकता, तब वह किसी का वध कैसे होगा? जैसे मनुष्य बारंबार नये घरों में प्रवेश करता है, उसी प्रकार जीव भिन्न-भिन्न शरीरों को ग्रहण करता है। पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीरों को अपना लेता है। इसी को तत्त्वदर्शी मनुष्य मृत्यु का मुख बताते हैं। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अंतर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में अर्जुन-वाक्य-विषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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