महाभारत वन पर्व अध्याय 57 श्लोक 34-47

सप्तपंचाशत्तम (57) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 36-46 का हिन्दी अनुवाद


दमयन्ती ने जब नल को वरण कर लिया, तब उन सब महातेजस्वी लोकपालों ने प्रसन्नचित्त होकर नल को आठ वरदान दिये। शचीपति इन्द्र ने प्रसन्न होकर निषधराज नल को यह वर दिया कि "मैं यज्ञ में तुम्हें प्रत्यक्ष दर्शन दूँगा और अंत में सर्वोत्तम गति प्रदान करूँगा।"

हविष्यभोक्ता अग्निे ने नल को अपने ही समान तेजस्वी लोक प्रदान किये और यह भी कहा कि "राजा नल जहाँ चाहेंगे, वहीं मैं प्रकट हो जाऊंगा।"

यमराज ने यह कहा कि "राजा नल की बनाई हुई रसोई में उत्तमात्तम रस एवं स्वाद उपलब्ध होगा और धर्म में इनकी दृढ़ निष्ठा बनी रहेगी।"

जल के स्वामी वरुण ने नल की इच्छा के अनुसार जल प्रकट होने का वर दिया और यह भी कहा कि "तुम्हारी पुष्पमालाएं सदा उत्तम गन्ध से सम्पन्न होगी।"

इस प्रकार सब देवताओं ने दो-दो वर दिये। इस प्रकार राजा नल को वरदान देकर वे देवता लोग स्वर्गलोक को चले गये। स्वयंवर में आये हुए राजा भी विस्मयविमुग्ध हो नल और दमयन्ती के विवाहोत्सव का-सा अनुभव करते हुए प्रसन्नतापूर्वक जैसे आये थे, वैसे लौट गये। सब नरेशों के विदा हो जाने पर महात्मा भीम ने बड़ी प्रसन्नता के साथ नल-दमयन्ती का शास्त्रविधि के अनुसार विवाह कराया। मनुष्यों में श्रेष्ठ निषध नरेश नल अपनी इच्छा के अनुसार कुछ दिनों तक ससुराल में रहे, फिर विदर्भ नरेश भीम की आज्ञा ले (दमयन्ती सहित) अपनी राजधानी को निकल गये।

राजन्! पुण्यश्लोक महाराज नल ने भी उस रमणीरत्न को पाकर उसके साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे शची के साथ इन्द्र करते हैं। राजा नल सूर्य के समान प्रकाशित होते थे। वीरवर नल अत्यन्त प्रसन्न रहकर अपनी प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते हुए उसे प्रसन्न रखते थे। उन बुद्धिमान् नरेश ने नहुषनन्दन ययाति की भाँति अश्वमेध तथा पर्याप्त दक्षिणा वाले दूसरे बहुत-से यज्ञों का भी अनुष्ठान किया। तदनन्तर देवतुल्य राजा नल ने दमयन्ती के साथ रमणीय वनों और उपवनों में विहार किया। महामना नल ने दमयन्ती के गर्भ से इन्द्रसेन नामक एक पुत्र और इन्द्रसेना नाम वाली एक कन्या को जन्म दिया। इस प्रकार यज्ञों का अनुष्ठान तथा सुखपूर्वक विहार करते हुए महाराज नल ने धन-धान्य से सम्पन्न वसुन्धरा का पालन किया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत दमयन्ती स्वयंवर विषयक सतावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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