महाभारत वन पर्व अध्याय 57 श्लोक 18-33

सप्तपंचाशत्तम (57) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद


‘यदि मैं मन, वाणी एवं क्रिया द्वारा कभी सदाचार से च्युत नहीं हुई हूँ तो उस सत्य के प्रभाव से देवता लोग मुझे राजा नल की प्राप्ति करावें। यदि देवताओं ने उन निषध नरेश नल को ही मेरा पति निश्चित किया हो तो उस सत्य के प्रभाव से देवता लोग मुझे उन्हीं को बता दें। यदि मैंने नल की आराधना के लिये ही यह व्रत आरम्भ किया हो तो उस सत्य के प्रभाव से देवता मुझे उन्हीं को बता दें। महेश्वर लोकपालगण अपना रूट प्रकट कर दें, जिससे मैं पूण्यलोक महाराज नल को पहचान सकूं।'

दमयन्ती का वह करुण विलाप सुनकर तथा उसके अंतिम निश्चय, नल विषयक वास्वविक अनुराग, विशुद्ध हृदय, उत्तम बुद्धि तथा नल के प्रति भक्ति एवं प्रेम देखकर देवताओं ने दमयन्ती के भीतर वह यथार्थशक्ति उत्पन्न कर दी, जिससे उसे देवसूचक लक्षणों का निश्चय हो सके। अब दमयन्ती ने देखा-सम्पूर्ण देवता स्वेदरहित हैं-उनके किसी अंग में पसीने की बूंद नहीं दिखायी देती, उनकी आंखों की पलकें नहीं गिरती हैं। उन्होंने जो पुष्प मालाएं पहन रक्खी हैं, वे नूतन विकार से युक्त हैं। वे सिंहासनों पर बैठे हैं, किंतु अपने पैरों से पृथ्वीतल का स्पर्श नहीं करते हैं और उनकी परछाई नहीं पड़ती है। उन पांचों में एक पुरुष ऐसे हैं, जिसकी परछाई पड़ रही है। उनके गले की पुष्पमाला कुम्हला गयी है। उनके अंगों में धूलकण और पसीने की बूंदे भी दिखायी पड़ती हैं। वे पृथ्वी का स्पर्श किये बैठे हैं और उनके नेत्रों की पलके गिरती हैं। इन लक्षणों से दमयन्ती ने निषधराज नल को पहचान लिया।

भरतकुलभूषण पाण्डुनन्दन! राजकुमारी दमयन्ती ने उन देवताओं तथा पुण्यश्लोक नल की ओर पुनः दृष्टिपात करके धर्म के अनुसार विषधराज नल का ही वरण किया। विशाल नेत्रों वाली दमयन्ती ने लजाते-लजाते नल के वस्त्र का छोर पकड़ लिया और उनके गले में परम सुन्दर फूलों का हार डाल दिया। इस प्रकार वरवर्णिनी दमयन्ती ने राजा नल का पतिरूप में वरण कर लिया। फिर तो दूसरे राजाओं के मुख में सहसा ‘हाहाकार’ का शब्द निकल पड़ा। भारत! देवता और महर्षि वहाँ साधुवाद देने लगे। सब ने विस्मित होकर राजा नल की प्रशंसा करते हुए इनके सौभाग्य को सराहा।

कुरुनन्दन! वीरसेन कुमार नल ने उल्लसित हृदय से सुन्दरी दमयन्ती को आश्वासन देते हुए कहा- ‘कल्याणी! तुम देवताओं के समीप जो मुझ-जैसे पुरुष का वरण कर रही हो, इस अलौकिक अनुराग के कारण अपने इस पति को तुम सदा अपनी प्रत्येक आज्ञा के पालन में तत्पर समझो। पवित्र मुसकान वाली देवि! मेरे इस शरीर में जब तक प्राण रहेंगे, तब तक तुम में मेरा अनन्य अनुराग बना रहेगा, यह मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ।' इसी प्रकार दमयन्ती ने भी हाथ जोड़कर विनीत वचनों द्वारा महाराज नल का अभिनन्दन किया। वे दोनों एक दूसरे को पाकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सामने अग्नि आदि देवताओं को देखकर मन ही मन उनकी ही शरण ली।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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