सप्तनवत्यधिकद्विशततम (297) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)
महाभारत: वन पर्व: सप्तनवत्यधिकद्विशततम अध्यायः 46-58 श्लोक का हिन्दी अनुवाद
सावित्री न कहा- 'सत्पुरुषों की वृत्ति निरन्तर धर्म में ही लगी रहती है। श्रेष्ठ पुरुष कभी दु:खी या व्यथित नहीं होते। सत्पुरुषों का संतों के साथ जो समागम होता है, वह कभी निष्फल नहीं होता है। श्रेष्ठ पुरुष कभी भय नहीं मानते हैं। श्रेष्ठ पुरुष सत्य के बल से सूर्य का संचालन करते हैं। राजन्! सत्पुरुष ही भूत, वर्तमान और भविष्य के आश्रय हैं। श्रेष्ठ पुरुष संतों के बीच में रहकर कभी दुःख नहीं उठाते हैं। यह सनातन सदाचार सत्पुरुषों द्वारा सेवित है। यह जानकर सभी श्रेष्ठ पुरुष परोपकार करते हैं और आपस में एक-दूसरे की ओर स्वार्थ की दृष्टि से कभी नहीं देखते हैं। सत्पुरुषों का प्रसाद कभी व्यर्थ नहीं जाता। वहाँ किसी को स्वार्थ की हानि नहीं उठानी पड़ती है और न मान सम्मान ही नष्ट होता है। ये तीनों (प्रसाद, अर्थ और मान) संतों में नित्य-निरन्तर बने रहते हैं; इसलिये वे सम्पूर्ण जगत् के रक्षक होते हैं।' यमराज बोले- 'पतिव्रते! जैसे-जैसे तू गम्भीर अर्थ से युक्त और सुन्दर पदों से विभूषित, मन के अनुकूल धर्मसंगत बातें मुझे सुनाती जा रही है, वैसे-ही-वैसे तेरे प्रति मेरी उत्तम भक्ति बढ़ती जाती है; अतः तू मुझसे कोई अनुपम वर माँग ले।' सावित्री ने कहा- 'मानद! आपने मुझे जो पुत्र-प्राप्ति का वर दिया है, वह पुण्यमय दाम्पत्य-संयोग के बिना सफल नहीं हो सकता। अन्य वरों की जैसी स्थिति है, वैसी इस अंतिम वर की नहीं है। इसलिये मैं पुनः यह वर माँगती हूँ कि ये सत्यवान जीवित हो जायें; क्योंकि इन पतिदेवता के बिना मैं मरी हुई के ही समान हूँ। पति के बिना यदि कोई सुख मिलता है, तो वह मुझे नहीं चाहिये। पतिदेव के बिना में स्वर्गलोक में भी जाने की इच्छा नहीं रखती। पति के बिना मुझे धन-सम्पत्ति की इच्छा नहीं है। अधिक क्या कहूँ, मैं पति के बिना जीवित रहना भी नहीं चाहती। आपने ही मुझे सौ पुत्र होने का वर दिया है और आप ही मेरे पति को अन्यत्र लिये जा रहे हैं; अतः मैं यही वर माँगती हूँ कि ये सत्यवान जीवित हो जायें, इससे आपका ही वचन सत्य होगा।' मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर ‘तथास्तु’ कहकर सूर्यपुत्र धर्मराज यम ने सत्यवान का बंधन खोल दिया और प्रसन्नचित्त होकर सावित्री से इस प्रकार कहा- ‘भद्रे! यह ले, मैंने तेरे पति को छोड़ दिया है। कुलनन्दिनी! तूने अपने धर्मार्थयुक्त वचनों द्वारा मुझे पूर्ण संतुष्ट कर दिया है। साध्वी! यह सत्यवान नीरोग, सफल-मनोरथ तथा तेरे द्वारा ले जाने योग्य हो गया है। यह तेरे साथ रहकर चार सौ वर्षों की आयु प्राप्त करेगा। यज्ञों द्वारा भगवान का यजन करके यह अपने धर्माचरण द्वारा सम्पूर्ण विश्व में विख्यात होगा। सत्यवान तेरे गर्भ से सौ पुत्र उत्पन्न करेगा और वे सभी राजकुमार राजा होने के साथ ही पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न होंगे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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