महाभारत वन पर्व अध्याय 297 श्लोक 32-45

सप्तनवत्यधिकद्विशततम (297) अध्‍याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 32-45 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


सावित्री बोली- 'मेरे बुद्धिमान श्वसुर का राज्य, जो पहले उनसे छीन लिया गया है, उसे वे महाराज पुनः प्राप्त कर लें तथा वे मेरे पूज्य गुरु महाराज द्युमत्सेन कभी अपना धर्म न छोड़ें; यही दूसरा वर मैं आपसे माँगती हूँ।'

यमराज बोले- 'राजा द्युमत्सेन शीघ्र एवं अनायास ही अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे और वे कभी अपने धर्म का भी परित्याग नहीं करेंगे। राजकुमारी! मेरे द्वारा अब तेरी इच्छा पूरी हो गयी। तू लौट जा, जिससे तुझे परिश्रम न हो।'

सावित्री बोली- 'देव! इस सारी प्रजा को आप नियम से संयम में रखते हैं और उसका नियमन करके आप अपनी इच्छा के अनुसार उसे विभिन्न लोकों में ले जाते हैं। इसीलिये आपका ‘यम’ नाम सर्वत्र विख्यात है। मैं जो बात कहती हूँ, उसे सुनिये। मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी से द्रोह न करना, सब पर दया भाव बनाये रखना और दान देना, यह साधु पुरुषों का सनातन धर्म है। प्रायः इस संसार के लोग अल्पायु होते हैं, मनुष्यों की शक्तिहीनता तो प्रसिद्ध ही है। आप जैसे संत महात्मा जो अपनी शरण में आये हुए शत्रुओं पर भी दया करते हैं (फिर हम जैसे दीन मनुष्यों पर दया क्यों न करेंगे?)'

यमराज बोले- 'शुभे! जैसे प्यासे मनुष्य को प्राप्त हुआ जल आनन्ददायक होता है, उसी प्रकार तेरी कही हुई यह बात मुझे अत्यन्त सुख दे रही है। अतः तू सत्यवान के जीवन के सिवा और कोई वर, जिसे तू लेना चाहे माँग ले।'

सावित्री ने कहा- 'भगवन्! मेरे पिता महाराज अश्वपति पुत्रहीन हैं; उन्हें सौ ऐसे औरस पुत्र प्राप्त हों, जो उनके कुल की संतान परम्परा को चलाने वाले हों। मैं आपसे यही तीसरा वर माँगती हूँ।'

यमराज बोले- 'शुभे! तेरे पिता के कुल की संतान परम्परा को चलाने वाले सौ तेजस्वी पुत्र होंगे। राजकुमारी! तेरी यह कामना भी पूरी हुई। अब लौट जा, तू रास्ते से बड़ी दूर चली आई है।'

सावित्री ने कहा- 'भगवन्! मैं अपने स्वामी के समीप हूँ। इसलिये यह स्थान मेरे लिये दूर नहीं है। मेरा मन तो और भी दूर तक दौड़ लगाता है। आप चलते-चलते ही मेरी कही हुई ये प्रस्तुत बातें पुनः सुनें। देवेश्वर! आप विवस्वान् (सूर्य) के प्रतापी पुत्र हैं, इसलिये विद्वान पुरुष आपको वैवस्वत कहते हैं। आप समस्त प्रजा के साथ समतापूर्वक धर्मानुसार आचरण करते हैं, इसलिये आप धर्मराज कहलाते हैं। मनुष्य को अपने-आप पर भी उतना विश्वास नहीं होता है, जितना संतों पर होता है। इसलिये सब लोग संतों से विशेष प्रेम करना चाहते हैं। सौहार्द से ही समस्त प्राणियों का एक-दूसरे के प्रति विश्वास उत्पन्न होता है। संतों में सौहार्द होने के कारण ही सब लोग उन पर अधिक विश्वास करते हैं।'

यमराज बोले- 'कल्याणि! तूने जैसी बात कही है, वैसी मैंने तेरे सिवा किसी दूसरे के मुख से नहीं सुनी है। शुभे! तेरी इस बात से मैं संतुष्ट हूँ; तू सत्यवान के जीवन के सिवा और कोई चौथा वर माँग ले और यहाँ से लौट जा।'

सावित्री ने कहा- 'मेरे और सत्यवान-दोनों के संयोग से कुल की वृद्धि करने वाले, बल और पराक्रम से सुशोभित सौ औरस पुत्र हों। यह मैं आपसे चौथा वर माँगती हूँ।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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