अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम (278) अध्याय: वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
महाभारत: वन पर्व: अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 34-43 का हिन्दी अनुवाद
रावण के ऐसे वचन सुनकर सुन्दरी जनककिशोरी ने अपने दोनों कान बन्द कर लिये और उससे इस प्रकार कहा- ‘बस, अब ऐसी बातें मुँह से न निकाल। नक्षत्रों सहित आकाश फट पड़े, पृथ्वी टूक-टूक हो जाये। अग्नि अपनी उष्णता त्याग कर शीतल हो जाये, परंतु मैं रघुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्र जी को नहीं छोड़ सकती। गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले मद्ममालामण्डित वनवासी गजराज की सेवा में उपस्थित होकर कोई हथिनी किसी शूकर को कैसे छू सकती है? जो फूलों के रस से बने हुए मधुर पेय तथा मधुमक्षिकाओं द्वारा द्वारा तैयार किया हुआ मधु पी चुकी हो, ऐसी कोई भी नारी काँजी के रस का लोभ कैसे कर सकती है?’ रावण से इस प्रकार कहकर सीता अपने आश्रम में प्रवेश करने लगी। उस समय क्रोध के मारे उनके ओंठ फड़क रहे थे और वे अपने दोनों हाथों को बार-बार हिला रही थीं।। इसी समय रावण ने दौड़ कर उनका मार्ग रोक लिया और कठोर स्वर में डराना, धमकाना आरम्भ किया। इससे वे भय के मारे मूर्च्छित हो गयीं। तब रावण ने उनके केश पकड़ लिये और आकाश-मार्ग से लंका की ओर प्रस्थान किया। उस समय वे तपस्विनी सीता ‘हा राम-हा राम की’ रट लगाये हुए रो रही थीं और वह राक्षस उन्हें हर कर लिये जा रहा था। इसी अवस्था में एक पर्वत की गुफा में रहने वाले गृध्रराज जटायु ने उन्हें देखा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में मारीचवध तथा सीताहरण विषयक दो सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|