सप्तषष्टयधिकशततम (167) अध्याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)
महाभारत: वन पर्व: सप्तषष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 42-57 का हिन्दी अनुवाद
मेरा मन तो अस्त्र-शस्त्रों में लगा हुआ था। उस समय मैंने हाथ जोड़कर मन-ही-मन भगवान् शंकर को प्रणाम किया और यह बात कही- 'यदि मुझ पर भगवान् प्रसन्न हैं, तो मेरा मनोवांछित वर इस प्रकार है-देवताओं के पास जो कोई भी दिव्यास्त्र हैं, उन्हें मैं जानना चाहता हूँ।' यह सुनकर भगवान् शंकर ने मुझसे कहा- 'पाण्डुनन्दन! मैं तुम्हें सम्पूर्ण दिव्यास्त्रों की प्राप्ति का वर देता हूँ। पाण्डुकुमार! मेरा रौद्रास्त्र स्वयं तुम्हें प्राप्त हो जायेगा।' यह कहकर भगवान् पशुपति ने बड़ी प्रसन्नता के साथ मुझे अपना महान् पाशुपतास्त्र प्रदान किया। अपना सनातन अस्त्र मुझे देकर महादेव जी फिर बोले- 'तुम्हें मनुष्यों पर किसी प्रकार इस अस्त्र का प्रयोग नहीं करना चाहिये। अपने से अल्प शक्ति वाले विपक्षी पर यदि इसका प्रहार किया जाये, तो यह सम्पूर्ण विश्व को दग्ध कर देगा। धनंजय! जब शत्रु के द्वारा अपने को बहुत पीड़ा प्राप्त होने लगे, उस दशा में आत्मरक्षा के लिये इसका प्रयोग करना चाहिये। शत्रु के अस्त्रों का विनाश करने के लिये सर्वथा इसका प्रयोग उचित है'। इस प्रकार भगवान् वृषभध्वज के प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण अस्त्रों का निवारण करने वाला और कहीं भी कुण्ठित न होने वाला दिव्य पाशुपतास्त्र मूर्तिमान् हो मेरे पास आकर खड़ा हो गया। वह शत्रुओं का संहारक और विपक्षियों की सेना का विध्वंसक है। उसकी प्राप्ति बहुत कठिन है। देवता, दानव तथा राक्षस किसी के लिये भी उसका वेग सहन करना अत्यन्त कठिन है। फिर भगवान् शिव की आज्ञा होने पर मैं वहीं बैठ गया और वे मेरे देखते-देखते अन्तर्धान हो गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में गन्धमादन निवासकालिक युधिष्ठिर-अर्जुन संवाद विषयक एक सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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