महाभारत वन पर्व अध्याय 167 श्लोक 24-41

सप्तषष्टयधिकशततम (167) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तषष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद


इतना ही नहीं उस विशालकाय एवं धनुर्धर किरात ने उस समय मुझसे यह भी कहा- 'अच्छा, ठहर जाओ। मैं अपने पैने बाणों से अभी तुम्हारा घमंड चूर-चूर किये देता हूं'। ऐसा कहकर उस भील ने जैसे पर्वत पर वर्षा हो, उस प्रकार महान् बाणों की बौछार करके मुझे सब ओर से ढक दिया; तब मैंने भी भारी बाणवर्षा करके उसे सब ओर से आच्छादित कर दिया। तदनन्तर जैसे वज्र से पर्वत पर आघात किया जाये, उसी प्रकार प्रज्वलित मुख वाले अभिमंत्रित और खूब खींचकर छोड़े हुए बाणों द्वारा मैंने उसे बार-बार घायल किया। उस समय उसके सैंकड़ों और सहस्रों रूप प्रकट हुए और मैंने उसके सभी शरीर पर बाणों से गहरी चोट पहुँचायी। भारत! फिर उसके वे सारे शरीर एकरूप दिखायी दिये। महाराज! उस एकरूप में भी मैंने उसे पुनः अच्छी तरह घायल किया। कभी उसकी शरीर तो बहुत छोटा हो जाता, परंतु मस्तक बहुत बड़ा दिखायी देता था। फिर वह विशाल शरीर धारण कर लेता और मस्तक बहुत छोटा बना लेता था। राजन्! अन्त में वह एक ही रूप में प्रकट होकर युद्ध में मेरा सामना करने लगा।

भरतर्षभ! जब मैं बाणों की वर्षा करके भी युद्ध में उसे परास्त न कर सका, तब मैंने महान् वायव्यास्त्र का प्रयोग किया। किंतु उससे भी उसका वध न कर सका। यह एक अद्भुत-सी घटना हुई। वायव्यास्त्र के निष्फल हो जाने पर मुझे महान् आश्चर्य हुआ। महाराज! तब मैंने पुनः विशेष प्रयत्न करके रणभूमि में किरातरूपधारी उस अद्भुत पुरुष पर महान् अस्त्रसमूह की वर्षा की। स्थूणाकर्ण[1], वारुणास्त्र[2], भयंकर शरवर्षास्त्र[3], शलभास्त्र[4] तथा अश्मवर्ष[5] इन अस्त्रों का सहारा ले मैं उस किरात पर टूट पड़ा।

राजन्! उसने मेरे उन सभी अस्त्रों को बलपूर्वक अपना ग्रास बना लिया। उन सबके भक्षण कर लिये जाने पर मैंने महान् ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। तब प्रज्वलित बाणों द्वारा वह अस्त्र सब ओर बढ़ने लगा। मेरे महान् अस्त्र से बढ़ने की प्रेरणा पाकर वह ब्रह्मास्त्र अधिक वेग से बढ़ चला। तदनन्तर मेरे द्वारा प्रकट किये हुए ब्रह्मास्त्र के तेज से वहां के सब लोग संतप्त हो उठे। एक ही क्षण में सम्पूर्ण दिशाएं और आकाश सब ओर से आग की लपटों से उदीप्त हो उठे। परंतु उस महान् तेजस्वी वीर ने क्षणभर में ही मेरे उस ब्रह्मास्त्र को भी शान्त कर दिया। राजन्! उस ब्रह्मास्त्र के नष्ट होने पर मेरे मन में महान् भय समा गया। तब मैं धनुष और दोनों अक्षय तरकस लेकर सहसा उस दिव्य पुरुष पर आघात करने लगा, किंतु उसने उन सब को भी अपना आहार बना लिया। जब मेरे सारे अस्त्र-शस्त्र नष्ट होकर उसके आहार बन गये, तब मेरा उस अलौकिक प्राणी के साथ मल्लयुद्ध प्रारम्भ हो गया। पहले मुक्कों और थप्पड़ों से मैंने उससे टक्कर लेने की चेष्टा की, परंतु उस पर मेरा कोई वश नहीं चला और में निश्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। महाराज! तब वह अलौकिक प्राणी हंसकर मेरे देखते-देखते स्त्रियों सहित वहीं अन्तर्धान हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आचार्य नीलकण्ठ के मत से स्थूणाकर्ण नाम है शंककर्ण का, जो भगवान् रुद्र के एक अवतार हैं। वे जिस अस्त्र के देवता हैं, उसका नाम भी स्थूणाकर्ण है।
  2. मूल में जाल शब्द आया है, जिसका अर्थ है, जालसम्बन्धी। यह जलवर्षक अस्त्र ही वारुणास्त्र है।
  3. जैसे बादल पानी की वर्षा करता है, उसी प्रकार निरन्तर बाणवर्षा करने वाला अस्त्र शरवर्ष कहलाता है।
  4. जैसे असंख्य टिड्डियां आकाश में मंडराती और पौधों पर टूट पड़ती हैं, उसी प्रकार जिस अस्त्र से असंख्य बाण आकाश को आच्छादित करते और शत्रु को अपना लक्ष्य बनाते हैं, उसी का नाम शलभास्त्र है।
  5. पत्थरों की वर्षा करने वाले अस्त्र को अश्मवर्ष कहते हैं।

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