महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 34 श्लोक 7-10

चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 7-10 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 10

जो पुरुष मेरी इस परमेश्वर रूप विभूति को[1] और योग- शक्ति को[2] तत्त्व से जानता है[3] वह निश्चल भक्तियोग[4] से युक्त हो जाता है इसमें कुछ भी संशय नहीं है। संबंध- कृष्ण द्वारा अर्जुन को भगवान् के प्रभाव और विभूतियों के ज्ञान का फल अविचल भक्तियोग की प्राप्ति बतलायी गयीं, अब दो श्लोकों में उस भक्तियोग की प्राप्ति का क्रम बतलाते हैं- मैं वासुदेव ही सम्‍पूर्ण जगत की उत्‍पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत चेष्‍टा करता है-

इस प्रकार समझकर[5] श्रद्धा और भक्ति से युक्‍त बुद्धिमान भक्‍तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं[6] निरतंर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों[7] को अर्पण करने वाले भक्‍तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही[8] निरंतर संतुष्‍ट होते हैं[9] और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं।[10] संबंध- उपर्युक्‍त प्रकार से भजन करने वाले भक्‍तों के प्रति भगवान् क्‍या करते हैं, अगले दो श्लोकों में यह बतलाते हैं- उस निरंतर मेरे ध्‍यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले[11] भक्‍तों को मैं यह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूं[12] जिससे वे मुझको ही प्राप्‍त होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसी अध्‍याय के चौथे, पांचवे और छठे श्र्लोकों में भगवान् ने जिन बुद्धि आदि भावों को और महर्षि आदि को अपने से उत्‍पन्‍न बतलाया है तथा गीता के सातवें अध्‍याय में 'जल में मैं रस हूं' (7।8) एवं नर्वे अध्‍याय में 'क्रतु मैं हूं' 'यज्ञ मैं हूं' (7।16) इत्‍यादि वाक्‍यों से जिन-जिन पदार्थों का, भावों का और देवता आदि का वर्णन किया है-उन सबका वाचक 'विभूति' शब्‍द है।
  2. भगवान् की जो अलौकिक शक्ति है, जिसे देवता और महर्षिगण भी पूर्णरूप से नहीं जानते (गीता 10।2,3) जिसके कारण स्‍वयं सात्त्विक, राजस और तामस भावों के अभिन्‍न निमितोपादान कारण होने पर भी भगवान् सदा उनसे न्‍यारे बने रहते हैं और यह कहा जाता है कि 'न तो वे भाव भगवान् में हैं और न भगवान् ही उनमे हैं' (गीता 7।12) जिस शक्ति से सम्‍पूर्ण जगत की उत्‍पत्ति, स्थिति और संहार आदि समस्‍त कर्म करते हुए भगवान् सम्‍पूर्ण जगत को नियम में चलाते हैं जिसके कारण वे समस्‍त लोकों के महान ईश्वर, समस्‍त भूतों के सुहृद्, समस्‍त यज्ञादि के भोक्‍ता, सर्वाधार और सर्वशक्तिमान है जिस शक्ति से भगवान् इस समस्‍त जगत को अपने एक अंश में धारण किये हुए हैं (गीता 10।42) और युग-युग में है अपने इच्‍छानुसार विभिन्‍न कार्यों के लिये अनेक रूप धारण करते हैं तथा सब कुछ करते हुए भी समस्‍त कर्मों से, सम्‍पूर्ण जगत से एवं जन्‍मादि समस्‍त विकारों से सर्वथा निर्लेप रहते हैं और गीता के नवम अध्‍याय के पांचवे श्‍लोक में जिसको 'ऐश्वर्य योग' कहा गया है-उस अद्भुत शक्ति (प्रभाव) का वाचक यहाँ 'योग' शब्‍द है।
  3. इस प्रकार समस्‍त जगत भगवान् की ही रचना है और सब उन्‍ही के एक अंश में स्थित हैं। इसलिये जगत में जो भी वस्‍तु शक्तिसम्‍पन्‍न प्रतीत हो, जहाँ भी कुछ विशेषता दिखलायी दे, उसे-अथवा समस्‍त जगत को ही भगवान् की विभूति अर्थात उन्‍हीं का स्‍वरूप समझना एवं उपर्युक्‍त प्रकार से भगवान् को समस्‍त जगत के कर्ता-हर्ता, सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, सर्वाधार, परम दयालु, सबके सुहृद् और सर्वांतर्यामी मानना-यही 'भगवान् की विभूति और योग को तत्त्व से जानना' है।
  4. भगवान् की जो अनन्‍यभक्ति है (गीता 11।55), जिसे 'अव्‍यभिचारिणी भक्ति' (गीता 13।10) और 'अव्‍यमिचारी भक्तियोग' (गीता 14।26) भी कहते हैं; उस 'अविचल भक्तियोग' का वाचक यहाँ 'अविकम्‍पेन' विशेषण के सहित 'योगेन' पद है और उसमें संलग्‍न रहना ही उससे युक्‍त हो जाना है
  5. भगवान् के ही योगबल से यह सृष्टि का चक्र चल रहा है उन्‍हीं की शासन-शक्ति से सूर्य, चन्‍द्रमा, तारागण और पृथ्‍वी आदि नियमपूर्वक घूम रहे हैं उन्‍हीं के शासन से समस्‍त प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार अच्‍छी-बुरी योनियों में जन्‍म धारण करके अपने-अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं- इस प्रकार से भगवान् को सबका नियंता और प्रवर्तक समझना ही 'सम्‍पूर्ण जगत भगवान् से चेष्‍टा करता है' यह समझना है।
  6. उपर्युक्‍त प्रकार से भगवान् को सम्‍पूर्ण जगत का कर्ता, हर्ता और प्रवर्तक समझकर अगले श्लोक में कहे हुए प्रकार से अतिशय श्रद्धा और प्रेमपूर्वक मन, बुद्धि और समस्‍त इन्द्रियों द्वारा निरंतर भगवान् का स्‍मरण और सेवन करना ही भगवान् को निरंतर भजना है।
  7. जिनका जीवन और इन्द्रियों की समस्‍त चेष्‍टाएं केवल भगवान् के‍ ही लिये हैं जिनको क्षण मात्र का भी भगवान् का वियोग असह्य है जो भगवान् के लिये ही प्राण धारण करते हैं खाना-पीना, चलना-फिरना, सोना-जागना आदि जितनी भी चेष्‍टाएं हैं, उन सबमें जिनका अपना कुछ भी प्रयोजन नहीं रह गया है- जो सब कुछ भगवान् के लिये ही करते हैं, उनके लिये भगवान् ने 'मद्गतप्राणा:' का प्रयोग किया है।
  8. श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव, लीला और स्‍वरूप कीर्तन और गायन करना तथा कथा-व्‍याख्‍यानादि द्वारा लोगों में प्रचार करना और उनकी स्‍तुति करना आदि सब भगवान् का क‍थन करना है।
  9. प्रत्‍येक क्रिया करते हुए निरंतर परम आनंद का अनुभव करना ही ‘नित्‍य संतुष्‍ट रहना’ है। इस प्रकार संतुष्‍ट रहने वाले भक्‍त की शांति, आनंद और संतोष का कारण केवल भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव, लीला और स्‍वरूप आदि का श्रवण, मनन और कीर्तन तथा पठन-पाठन आदि ही होता है। सांसारिक वस्‍तुओं से उसके आनंद और संतोष का कुछ भी संबंध नहीं रहाता।
  10. भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव, लीला, स्‍वरूप, तत्त्व और रहस्‍य का यथायोग्‍य श्रवण, मनन और कीर्तन करते हए एवं उनकी रुचि, आज्ञा और सं‍केत के अनुसार केवल उनमें प्रेम होने के लिये ही प्रत्‍येक क्रिया करते हए, मन के द्वारा उनको सदा-सर्वदा प्रत्‍यक्षवत अपने पास समझकर निरंतर प्रेमपूर्वक उनके दर्शन, स्‍पर्श और उनके साथ वार्तालाप आदि क्रीड़ा करते रहना-यही भगवान् में निरंतर रमण करना है।
  11. इससे यह भाव दिखलाया है कि पूर्वश्लोक में भगवान् के जिन भक्‍तों का वर्णन हुआ है, वे भोगों की कामना के लिये भगवान् को भजने वाले नहीं है, किंतु किसी प्रकार का भी फल न चाहकर केवल निष्‍काम अनन्‍य प्रेमभावपूर्वक ही भगवान् का, उस श्लोक में कहे हुए प्रकार से, निरंतर भजन करने वाले हैं।
  12. भगवान् का जो भक्‍तों के अन्‍त:करण में अपने प्रभाव और महत्त्वादि के रहस्‍य सहित निर्गुण-निराकर तत्त्व को तथा लीला, रहस्‍य, महत्त्व और प्रभाव आदि के सहित सगुण निराकार और साकार तत्त्व को यथार्थरूप से समझाने की शक्ति प्रदान करना है- वही ‘बुद्धि (तत्त्वज्ञानरूप) योग का प्रदान करना’ है। भगवान् को ही अपना परम प्रेमी, परम सुह्द्, परम आत्‍मीय, परम गति और परम प्रिय समझने के कारण जिनका चित्त अनन्‍य भाव से भगवान् में लगा हुआ है। (गीता 8।14;9। 22) भगवान् के सिवा किसी भी वस्‍तु में जिनकी प्रीती, आसक्ति या रमणीय बुद्धि नहीं है जो सदा-सर्वदा ही भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव, लीला और स्‍वरूप का चिंतन करते रहते हैं और जो शास्‍त्रविधि के अनुसार कर्म करते हुए उठते-उठते, सोते-जागते, चलते-फिरते, खाते-पीते, व्‍यवहार काल में और ध्‍यान काल में कभी क्षणमात्र भी भगवान् को नहीं भूलते, ऐसे नित्‍य-निरंतर चिंतन करने वाले भक्‍तों के लिये ही यहाँ भगवान् ने 'मच्चित्‍ता:' विशेषण का प्रयोग किया है। भगवान् में श्रद्धा-भक्ति रखने वाले प्रेमी भक्‍तों का जो अपने-अपने अनुभव के अनुसार भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व, लीला, माहात्‍म्‍य और रहस्‍य को परस्‍पर नाना प्रकार की युक्तियों से समझाने की चेष्‍टा करना है- यही परस्‍पर भगवान् का बाध्य कराना है।

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