महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 34 श्लोक 11-13

चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 11-13 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 10

हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिये उनके अंत:करण में स्थित हुआ मैं स्‍वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्व ज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्‍ट कर देता हूँ।[1][2] संबंध- गीता के सातवें अध्‍याय के पहले श्‍लोक में अपने सामग्र रूप का ज्ञान कराने वाले जिस विषय को सुनने के लिये भगवान् को अर्जुन को आज्ञा दी थी तथा दूसरे श्‍लोक में जिस विज्ञानसहित ज्ञान को पूर्णतया कहने की प्रतिज्ञा की थी, उसका वर्णन भगवान् ने सातवें अध्‍याय में किया। उसके बाद आठवें अध्‍याय में अर्जुन के सात प्रश्‍नों-का उत्‍तर देते हुए भी भगवान् ने उसी विषय का स्‍पष्‍टीकरण किया; किंतु वहाँ कहने की शैली दूसरी रही, इसलिये नवम अध्‍याय के आरम्‍भ में पुन: विज्ञानसहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करके उसी विषय को अङ्ग-प्रत्‍यंगोंसहित भलीभाँति समझाया। तदनंतर दूसरे शब्‍दों में पुन: उसका स्‍पष्‍टीकरण करने के लिये दसवें अध्‍याय के पहले श्‍लोक में उसी विषय को पुन: कहने की प्रतिज्ञा की और पांच श्‍लोकों द्वारा अपनी योगशक्ति और विभूतियों का वर्णन करके सातवें श्‍लोक में उनके जानने का फल अविचल भक्तियोग की प्राप्ति बतलायी। फिर आठवें और नवें श्‍लोकों में भक्तियों के द्वारा भगवान् के भजन में लगे हुए भक्‍तों के भाव और आचरण का वर्णन किया और दसवें तथा ग्‍यारहवें में उसका फल अज्ञानजनित अंधकार का नाश और भगवान् की प्राप्ति करा देने वाले बुद्धियोग की प्राप्ति बतलाकर उस विषय का उपसंहार कर दिया। इस पर भगवान् की विभूति और योग को तत्त्व से जानना भगवत्‍प्राप्ति में परम सहायक है, यह बात समझकर अब सात श्‍लोकों में अर्जुन पहले भगवान् की स्‍तुति करके भगवान् से उनकी योगशक्ति और विभूतियों का विस्‍तारसहित वर्णन करने के लिये प्रार्थना करते हैं-

अर्जुन बोले- आप ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं;[3] क्‍योंकि आपको सब ऋषिगण[4] सनातन, दिव्‍य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्‍मा और सर्वव्‍यापी कहते हैं। वैसे ही देवर्षि[5] नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्‍यास भी कहते हैं[6] और स्‍वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं[7]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पूर्वश्‍लोक में जिसे बुद्धियोग कहा गया है; जिसके द्वारा प्रभाव और महिमा आदि के सहित निर्गुण-निराकर तत्त्व का तथा लीला, रहस्‍य, महत्‍व ओर प्रभाव आदि के सहित सगुण-निराकार और साकारतत्त्व का स्‍वरूप भलीभाँति जाना जाता है, ऐसे संशय, निपर्यय आदि दोषों से रहित ‘दिव्‍य बोध’ का वाचक यहाँ ‘भास्‍वता’ विशेषण के सहित ‘ज्ञानदीपेन’ पद है।
  2. अनादिसिद्ध अज्ञान से उत्‍पन्‍न जो आवरणशक्ति है-जिसके कारण मनुष्‍य भगवान् के गुण, प्रभाव और स्‍वरूप को यथार्थ नहीं जानता-उसको यहाँ ‘अज्ञानजनित अंधकार’ है। उसे मैं भक्‍तों के अंत:करण में स्थित हुआ नष्‍ट कर देता हूं’ भगवान् के इस कथन का अभिप्राय यह है कि मैं सबके हृदय देश में अंतर्यामीरूप से सदा-सर्वदा स्थित रहता हूं, तो भी लोग मुझे अपने में स्थित नहीं मानते, इसी कारण में उनका अज्ञानजनित अंधकार नाश नहीं कर सकता। परंतु मेरे प्रेमी भक्‍त मुझे अपना अंतर्यामी समझते हुए पूर्वश्लोक में कहे हुए प्रकार से निरंतर मेरा भजन करते हैं, इस कारण उनके अज्ञानजनित अंधकार का मैं सहज ही नाश कर देता हूँ।
  3. इस कथन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जिस निर्गूण परमात्‍मा को ‘परम ब्रह्म’ कहते हैं, वे आपके ही स्‍वरूप हैं तथा आपका जो नित्‍यधाम है, यह भी सच्चिदानंदमय दिव्‍य और आपसे अभिन्‍न होने के कारण आपका ही स्‍वरूप है तथा आपके नाम, गुण, प्रभाव, लीला, और स्‍वरूपों के श्रवण, मनन और कीर्तन आदि सबको सर्वथा परम पवित्र करने वाले हैं: इसलिये आप ‘परम पवित्र’ हैं।
  4. यहाँ ‘ऋषिगण’ शब्‍द से मार्कण्‍डेय, अङ्गिरा आदि समस्‍त ऋषियों को समझना चाहिये। अपनी मान्‍यता के समर्थन में अर्जुन उनके कथन का प्रमाण दे रहे हैं। अभिप्राय यह है कि वे लोग आपको सनातन-नित्‍य एकरस रहने वाले, क्षयविनाशरहित, दिव्‍य-स्‍वत:प्रकाश और ज्ञानस्‍वरूप, सबके आदिदेव तथा अजन्‍मा-उत्‍पत्ति रूप विकार से रहित और सर्वव्‍यापी बतलाते हैं। अत: आप ‘परम ब्रह्म’, ‘परम धाम’ और ‘परम पवित्र’ हैं- इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। परम सत्‍यवादी धर्ममूर्ति पितामह भीष्‍म ने भी दुर्योधन को भगवान् श्रीकृष्‍ण का प्रभाव बतलाते हुए कहा है- ‘भगवान् वासुदेव सब देवताओं के देवता और सबसे श्रेष्‍ठ हैं; ये ही धर्म है, धर्मज्ञ हैं, वरद हैं, सब कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं और ये ही कर्ता, कर्म और स्‍वयंप्रभु हैं। भूत, भविष्‍यत्, वर्तमान, संध्‍या, दिशाएं, आकाश और सब नियमों को इन्‍हीं जनार्दन ने रचा है। इन महात्‍मा अविनाशी प्रभु ने ऋषि, तप और जगत् की सृष्टि करने वाले प्रजापति को रचा। सब प्राणियों के अग्रज संकर्षण को भी इन्‍होंने ही रचा। लोक जिनको ‘अनन्‍त’ कहते हैं और जिन्‍होंने पहाड़ों समेत सारी पृथ्‍वी को धारण कर रखा है, वे शेषनाग भी इन्‍हीं से उत्‍पन्‍न हैं; ये ही वाराह, नृसिंह और वामन का अवतार धारण करते वाले है; ये ही सबके माता-पिता हैं, इनसे श्रेष्‍ठ और कोई भी नहीं है; ये ही केशव परम तेजरूप है और सब लोगों के पितामह हैं, मुनिगण इन्‍हें हृषिकेश कहते हैं, ये ही आचार्य, पितर और गुरु है। ये श्रीकृष्‍ण जिस पर प्रसन्‍न होते है, उसे अक्षय लोक की प्राप्ति होती है। भय प्राप्‍त होने पर जो इन भगवान् केशव के कारण जाता है और इनकी स्‍तुति करता है, वह मनुष्‍य परम सुख को प्राप्‍त होता है। जो लोग भगवान् श्रीकृष्‍ण की शरण में चले जाते हैं, वे कभी मोह को नहीं प्राप्‍त होते। महान् भय (संकट) में डूबे हुए लोगों की भी भगवान् जनार्दननित्‍य रक्षा करते हैं।‘( महा. भीष्‍म. अ. 67)
  5. देवर्षि के लक्षण ये हैं-

    देवलोकप्रतिष्‍ठाश्च ज्ञेया देवर्षय शुभा:।।
    देवर्षयस्‍तथान्‍ये च तेषां वक्ष्‍यामि लक्षणम्।
    भूतभव्‍यभवज्‍ज्ञानं सत्‍याभिव्‍याहृतं तथा।।
    सम्‍बुद्धास्‍तु स्‍वयं ये तु सम्‍बद्धा ये च वै स्‍वयमू।
    तपसेह प्रसिद्धा ये गर्में यैश्च प्रणोदितम्।।
    मन्‍त्रव्‍याहारिणो ये च ऐश्र्वर्यात् सर्वगाश्च ये।
    इत्‍येते ऋषिभिर्युक्‍ता देवद्विजनृपास्‍तु ये।। ( वायुपुराण 61। 88, 90, 91, 92)

    ‘जिनका देवलोक में निवास है, उन्‍हें शुभ देवर्षि समझना चाहिये। इनके सिवा वैसे ही जो दूसरे और भी देवर्षि हैं, उनके लक्षण कहता हूँ। भूत, भविष्‍यत् और वर्तमान का ज्ञान होना तथा सब प्रकार से सत्‍य बोलना-देवर्षि का लक्षण है। जो स्‍वयं भलीभाँति ज्ञान को प्राप्‍त हैं तथा जो स्‍वयं अपनी इच्‍छा से संसार से सम्‍बद्ध हैं, जो अपनी तपस्‍या के कारण इस संसार में विख्‍यात हैं, जिन्‍होने (प्रह्लादादि को) गर्भ में ही उपदेश दिया है, जो मन्‍त्रों के वक्‍ता हैं और ऐश्र्वर्य (सिद्धियों) के बल के सर्वत्र सब लोकों में‍ बिना किसी बाधा के जा-आ सकते हैं और जो सदा ऋषियों से धिरे रहते हैं, वे देवता, ब्राह्मण और राजा- ये सभी देवर्षि हैं।’ देवर्षि अनेकों हैं, जिनमें से कुछ के नाम ये हैं-

    देवर्षी धर्मपुत्रों तु नरनारायणावुभौ।
    बालखिल्‍या: क्रतो: पुत्रा: कर्दम: पुलहस्‍य तु।।
    पर्वतो नारदश्‍चैव कश्‍यपस्‍यात्‍मजावुभौ।
    ॠषंत देवान् यस्‍मात्‍ते तस्‍माद् देवर्षय: स्‍मृता:। (वायुपुराण 61। 83, 84, 85)

    ‘धर्म के दोनों पुत्र नर और नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्‍य ऋषि, पुलह के कर्दम, पर्वत ओर नारद तथा कश्‍यप-के दोनों ब्रह्मवादी पुत्र असित और वत्‍सल- ये चूंकि देवताओं को अधीन रख सकते हें, इसलिये इन्‍हें ‘दे‍वर्षि’ कहते हैं।‘

  6. देवर्षि नारद, असित, देवल और व्‍यास- ये चारों ही भगवान् के यथार्थ तत्त्व को जानने वाले, उनके महान् प्रेमी भक्‍त और परम ज्ञानी महर्षि है। ये अपने काल के बहुत ही सम्‍मान्‍य तथा महान् सत्‍यवादी महापुरुष माने जाते हैं, इसी से इनके नाम खास तौर पर गिनाये गये हैं और भगवान् की महिमा तो ये नित्‍य ही गाया करते हैं। इने जीवन का प्रधान कार्य है भगवान् की महिमा का ही विस्‍तार करना। महाभारत में भी इनके तथा अन्‍याय ऋषि-महर्षियों के भगवान् की म‍हिमा गानेके कई प्रसंग आये हैं।
  7. इस कथन से अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि केवल उपर्युक्‍त ऋषिलोग ही कहते हैं, यह बात नहीं हैं; स्‍वयं आप भी मुझसे अपने अतुलनीय प्रभाव की बातें इस समय भी कर रहे हैं। (गीता 4।6 से9 तक; 5। 29; 7। 7 से 12 तक; 9।4 से 11 और 16 से 19 तक; तथा 10।2, 3, 8) अत: मैं जो आपको साक्षात् परमेश्वर समझता हूं, यह ठीक ही है।

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