महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 29-34

त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 29-34 का हिन्दी अनुवाद
श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 9


मैं सब भूतों में समभाव से व्‍यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है;[1] परंतु जो भक्‍त मुझको प्रेम से भजते है, वे मुझ में हैं और मैं भी उनमें प्रत्‍यक्ष्‍ा प्रकट हूँ।[2] यदि कोई अतिशय दुराचारी[3] भी अनन्‍य भाव से मेरा भक्‍त होकर मुझको भजता है[4] तो वह साधु ही मानने योग्‍य है, क्‍योंकि वह यथाथ निश्‍चय वाला है। अर्थात् उसने भली-भाँति निश्‍चय कर लिया है कि परमेश्‍वर के भजन के समान अन्‍य कुछ भी नहीं है।[5] वह शीघ्र ही धर्मात्‍मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्‍त होता है।[6] हे अर्जुन! तू निश्‍चयपूर्वक सत्‍य जान[7] कि मेरा भक्‍त नष्‍ट नहीं होता[8]

सम्‍बन्‍ध– अब दो श्‍लोकों में भगवान् अच्‍छी बुरी जाति के कारण होने वाली विषमता का अपने में अभाव दिखलाते हुए शरणागतिरूप भक्ति का महत्‍व प्रतिपादन करके अर्जुन को भजन करने की आज्ञा देते हैं। हे अर्जुन! स्‍त्री, वैश्‍य, शुद्र[9]तथा पापयोनि[10] चाण्‍डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर[11] परम गति को प्राप्‍त होते हैं।


फिर इसमें कहना ही क्‍या है, जो पुण्‍यशील ब्राह्मण[12] तथा राजर्षि भक्तजन[13] मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्‍त होते हैं। इसलिये तू सुखरहित और क्षणभगुंर इस मनुष्‍य शरीर को प्राप्‍त होकर निरन्‍तर मेरा ही भजन कर[14] सम्‍बन्‍ध– पिछले श्‍लोक में भगवान् ने अपने भजन का महत्‍व दिखलाया और अन्‍त में अर्जुन को भजन करने के लिये कहा। अतएव अब भगवान् अपने भजन का अर्थात शरणागति का प्रकार बतलाते हुए अध्‍याय की समाप्ति करते हैं और कहते हैं- हे अर्जुन! -मुझमें मनवाला हो[15] मेरा भक्‍त बन,[16] मेरा पूजन करने वाला हो,[17] मुझको प्रणाम कर।[18] इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके[19] मेरे परायण[20] होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।[21]


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍म पर्व के श्रीमदभगवद्गीता पर्व के अन्‍तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्‍त्र श्रीमद्गवद्गीतापनिषद से, श्रीकृष्‍णार्जुन संवाद में राजविद्धराजगुहयोग नामक नवाँ अध्‍याय पूरा हुआ ॥9॥ भीष्‍म पर्व में तैंतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैं ब्रह्मा से लेकर स्‍तम्‍ब पर्यन्‍त समस्‍त प्राणियों में अन्‍तर्यामीरूप से समान भाव से व्‍याप्‍त हूँ। अतएव मेरा सब में समभाव है, किसी में भी मेरा राग-द्वेष नहीं है। इसलिये वास्‍तव में मेरा कोई भी अप्रिय या प्रिय नहीं है।
  2. भगवान् के साकार या निराकार–किसी भी रूप का श्रद्धा और प्रेमपूर्वक निरन्‍तर चिन्‍तन करना उनके नाम, गुण, प्रभाव, महिमा और लीला चरित्रों का श्रवण, मनन और कीर्तन करना उनको नमस्‍कार करना, पत्र, पुष्‍प आदि यथेष्ट सामग्रियों द्वारा उनकी प्रेमपूर्वक पूजा करना और अपने समस्‍त कर्म उनके समर्पण करना आदि सभी क्रियाओं का नाम भक्तिपूर्वक भगवान् को भजना है। जो पुरुष इस प्रकार भगवान् को भजते हैं, भगवान् भी उनको वैसे ही भजते है। वे जैसे भगवान् को नहीं भूलते, वैसे ही भगवान् भी उनको नहीं भूल सकते– यही भाव दिखलाने के लिये भगवान् ने उनको अपने में बतलाया है और उन भक्‍तों को विशुद्ध अन्‍तःकरण भगवत्‍प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है, इससे उनके हदय में भगवान् सदा सर्वदा प्रत्‍यक्ष दिखने लगते हैं- यही भाव दिखलाने के लिये भगवान् ने अपने को उनमें बतलाया है। जैसे समभाव से सब जगह प्रकाश देने वाला सूर्य दर्पण आदि स्‍वच्‍छ पदार्थों में प्रतिबिम्बित होता है, काष्‍ठादि में नहीं होता, तथापि उसमें विषमता नहीं है, वैसे ही भगवान् भी भक्‍तों को मिलते हैं, दूसरों को नहीं मिलते- इसमें उनकी विषमता नहीं है, यह तो भक्ति की ही महिमा है।
  3. ‘चेतू’ अव्‍यय ‘यदि’ के अर्थ में है इसका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि प्रायः दुराचारी मनुष्‍यों की विषयों में और पापों में आसक्ति रहने के कारण वे मुझमें प्रेम करके मेरा भजन नहीं करते, तथापि किसी पूर्व शुभ संस्‍कार की जागृति, भगवद्रावमय वातावरण, शास्त्र के अध्‍ययन और महात्‍मा पुरुषों के सत्‍संग एवं मेरे गुण, प्रभाव, महत्त्व और रहस्‍य का श्रवण करने से यदि कदाचित दुराचारी मनुष्‍य की मुझमें श्रद्धा भक्ति हो जाय और वह मेरा भजन करने लगे तो उसका भी उद्धार हो जाता है।
  4. जिनके आचरण अत्‍यन्‍त दूषित हो, खान पान और चाल चलन भ्रष्‍ट हों, अपने स्‍वभाव, आसक्ति और बुरी आदत से विवश होने के कारण जो दुराचारों का त्‍याग न कर सकते हों, ऐसे मनुष्‍यों को अतिशय दुराचारी समझना चाहिये। ऐसे मनुष्‍यों का जो भगवान् के गुण, प्रभाव आदि के सुनने और पढ़ने से या अन्‍य किसी कारण से भगवान् को सर्वोत्‍तम समझ लेना और एकमात्र भगवान् का ही आश्रय लेकर श्रद्धा प्रेमपूर्वक उन्‍हीं को अपना इष्‍टदेव मान लेना है- यही उनका 'अनन्‍यभाव' होना है। इस प्रकार भगवान् का भक्‍त बनकर जो उनके स्‍वरूप का चिन्‍तन करना, नाम, गुण, महिमा और प्रभाव का श्रवण, मनन और कीर्तन करना, उनको नमस्‍कार करना, पत्र, पुष्‍प आदि यथेष्‍ट वस्‍तु उनके अर्पण करके उनका पूजन करना तथा अपने किये हुए शुभ कर्मों को भगवान् के समर्पण करना है- यही अनन्‍यभाव होकर भगवान् का भजन करना है।
  5. जिसने यह दृढ़ निश्‍चय कर लिया है कि 'भगवान् प्रतितपावन, सबके सुहद्' सर्वशक्तिमान्, परम दयालु, सर्वज्ञ, सबके स्‍वामी और सर्वोत्‍तम हैं एवं उनका भजन करना ही मनुष्‍य जीवन का परम कर्त्‍तव्‍य है; इससे समस्‍त पापों और पाप वासनाओं का समूल नाश होकर भगवत्‍कृपा से मुझको अपने आप ही भगवत्‍प्राप्ति हो जायेगी।'– यह बहुत ही उत्‍तम और यथार्थ निश्‍चय है। भगवान् कहते हैं कि जिसका ऐसा निश्‍चय है, वह मेरा भक्‍त है और मेरी भक्ति प्रताप से वह शीघ्र ही पूर्ण धर्मात्‍मा हो जाएगा। अतएव उसे पापी या दुष्‍ट न मानकर साधु ही मानना उचित है।
  6. इसी जन्‍म में बहुत ही शीघ्र सब प्रकार के दुर्गण और दुराचारों से रहित होकर गीता के सोलहवें अध्‍याय के पहले, ‘दूसरे और तीसरे श्‍लोकों में वर्णित दैवी सम्‍पदा से युक्‍त हो जाना अर्थात भगवान् की प्राप्ति का पात्र बन जाना ही शीघ्र धर्मात्‍मा बन जाना है और जो सदा रहने वाली शान्ति है, जिसकी एक बार प्राप्ति हो जाने पर फिर कभी अभाव नहीं होता, जिसे नैष्ठिकी शान्ति (गीता 5।12), निर्वाणपरमा शान्ति (गीता 6।15) और परमा शान्ति (गीता 18।62) कहते हैं, परमेश्‍वर की प्राप्ति रूप उस शान्ति को प्राप्‍त हो जाना ही ‘सदा रहने वाली परम शान्ति’ को प्राप्‍त होना है।
  7. इसके प्रयोग से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ‘अर्जुन! मैंने जो तुम्‍हें अपनी भक्ति का और भक्‍त का यह महत्त्व बतलाया है, उसमें तुम्‍हें किन्तु मात्र भी संशय न रखकर उसे सर्वथा सत्‍य समझना और दृढ़तापूर्वक धारण कर लेना चाहिये।
  8. यहाँ भगवान् के कहने का यह अभिप्राय है कि मेरे भक्त का क्रमशः उत्‍थान ही होता रहता है, पतन नहीं होताा अर्थात् वह न तो अपनी स्थिति से कभी गिरता है और न उसको नीच योनि या नरकादिकी प्राप्ति रूप दुर्गति की ही प्राप्ति होती है वह पूर्व कथन के अनुसार क्रमशः दुर्गुण दुराचारों से सर्वथा रहित होकर शीघ्र ही धर्मात्‍मा बन जाता है और परम शान्ति को प्राप्‍त हो जाता है।
  9. यहाँ ‘अपि’ का दो बार प्रयोग करके भगवान् ने ऊँची नीची जाति के कारण होने वाली विषमता का अपने में सर्वथा अभाव दिखलाया है। भगवान् के कथन का यहाँ यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि ब्राह्मण और क्षत्रियों की अपेक्षा हीन समझे जाने वाली स्‍त्री, वैश्‍य और शूद्र एवं उनसे भी हीन समझे जाने वाले चाण्‍डाल आदि कोई भी हों, मेरी उनमें भेदबुद्धि नहीं है। मेरी शरण होकर जो कोई भी मुझको भजते हैं, उन्‍हीं को परम गति मिल जाती है।
  10. पूर्वजन्‍मों के पापों के कारण चाण्‍डालादि योनियों में उत्‍पन्‍न प्राणियों को ‘पापयोनि’ ही माना गया है। इनके सिवा शास्‍त्रों के अनुसार हूण, भील, खस, यवन आदि म्‍लेच्‍छ जाति के मनुष्‍य भी ‘पापयोनि’ ही माने जाते है। यहाँ ‘पापयोनि’ शब्‍द इन्‍हीं सबका वाचक है। भगवान् की भक्ति के लिये किसी जाति या वर्ण केलिये कोई रुकावट नहीं है। वहाँ तो शुद्ध प्रेम की आवश्‍यकता है। श्रीमद्भागवत में भी कहा है- हे उद्वव! संतों का परमप्रिय ‘आत्‍मा’ रूप मैं एकमात्र श्रद्धा भक्ति से ही वशीभूत होता हूँ। मेरी भक्ति जन्‍मतः चाण्‍डालों को भी पवित्र कर देती है।’ यहाँ ‘पापयोनयः’ पद को स्‍त्री, वैश्‍य और शूद्रों का विशेषण नहीं मानना चाहिये; क्‍योंकि वैश्‍यों की गणना दि जो में की गयी है। उनको वेद पढ़ने का और यज्ञादि वैदिक कर्मों के करने का शास्‍त्र में पूर्ण अधिकार दिया गया है। अतः दिज होने के कारण वैश्‍यों को ‘पापयोयनि’ कहना नहीं बन सकता। इसके अतरिक्‍त छान्‍दोग्‍योपनिषद् में जहाँ जीवों की कर्मानुरूप गति का वर्णन है, यह स्‍पष्‍ट कहा गया है कि- तद्द इह रमणीयचरणा अभ्‍याशो ह यत्‍ते रमणीयं योनिमापघरेन ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रयियोनिं वा वैश्‍ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्‍याशो ह यत्‍ते कपूयां योनिामापधेरश्‍योनिं वा सकूरयोनिं वा चाण्‍डाल योनिं वा। (अध्‍याय 5 खण्‍ड 10 मं. 7) ‘उन जीवों में जो इस लोक में रमणीय आचरण वाले अर्थात् पुण्‍यात्‍मा होते हैं, वे शीघ्र ही उत्‍तम योनि– ब्राह्मणयोनि, क्षत्रियनिं अथवा वैश्‍ययोनि को प्राप्‍त करते है और जो इस संसार में कपूय (अधम) आचरण वाले अर्थात् पापकर्मा होते हैं, वे अधम योनि अर्थात् कुत्‍ते की, सू‍कर की या चाँण्‍डाल की योनि को प्राप्‍त करते हैं। इससे यह सिद्ध है कि वैश्‍यों की गणना ‘पापयोनि’ में नहीं की जा सकती। अब रही स्त्रियों का अपने पतियों के साथ यज्ञादि वैदिक कर्मों में अधिकार माना गया है। इस कारण से उनको भी पापयोनि कहना नहीं बन सकता। सबसे बड़ी अड़चन तो यह पड़ेगी कि भगवान् की भक्ति से चाण्‍डाल आदि को भी परमगति मिलने की बात, जो कि सर्वशास्‍त्रसम्‍मत है और जो भकित के महत्‍व को प्रकट करती है, कैसे रहेगीॽ अतएव ‘पापयोनयः’ पदको स्‍त्री, वैश्‍य और शूद्रों का विशेषण न मानकर शूद्रों की अपेक्षा भी हीन जाति के मनुष्‍यों का वाचक मानना ही ठीक प्रतीत होता है। क्‍योंकि भागवत में बतलाया है-

    किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा आभीर कड़का यवनाः खसादयः।
    येअन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुद्धयन्ति तस्मै प्रभपिष्णवे नमः।।(2।4।18)

    ‘जिनके आश्रित भक्‍तों का आश्रय लेकर किरात, हूण, आन्‍ध्र, पुलिन्‍द, पुल्‍कस, आभीर, कंक, यवन और खस आदि अघम जाति के लोग तथा इनके सिवा और भी बड़े से बड़े पापी मनुष्‍य शुद्ध हो जाते हैं, उन जगत् प्रभु भगवान् विष्णु को नमस्‍कार है।‘

  11. भगवान् पूर्ण विश्‍वास करके चौतीसवें श्‍लोक के कथनानुसार प्रेमपूर्वक सब प्रकार से भगवान् की शरण हो जाना अर्थात् उनके प्रत्‍येक विधान में सदा संतुष्‍ट रहना, उनके नाम, रूप, गुण, लीला आदि का निरन्‍तर श्रवण, कीर्तन और चिन्‍तन करते रहना, उन्‍हीं को अपनी गति, भर्ता, प्रभु आदि मानना, श्रद्धा भक्तिपूर्वक उनका पूजन करना, उन्‍हें नमस्‍कार करना, उनकी आज्ञा का पालन करना और समस्‍त कर्म उन्‍हीं के समर्पण कर देना आदि भगवान् की शरण होना है।
  12. ‘किम’ और ‘पुनः’ का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जब उपर्युक्‍त अत्‍यन्‍त दुराचारी (गीता 9।30) और चाण्‍डाल आदि नीच जाति के मनुष्‍य भी (गीता 9।32) मेरा भजन करके परम गति को प्राप्‍त हो जाते हैं, तब फिर जिनके आचार व्‍यवहार और वर्ण अत्‍यन्‍त उत्‍तम हैं, ऐसे मेरे भक्‍त पुण्‍यशील ब्राह्मण और राजर्षिलोग मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्‍त हो जायें– इसमें तो कहना ही क्‍या है!
  13. ‘भक्‍तः’ पद का सम्‍बन्‍ध ब्राह्मण और राजर्षि दोनों के साथ है, क्‍योंकि यहाँ भक्ति के कारण उनको परम गति की प्राप्ति बतलायी गयी है।
  14. मनुष्‍य देह बहुत ही दुर्लभ है। यह बड़े पुण्‍य बल से और खास करके भगवान् की कृपा से मिलता है और मिलता है केवल भगवत्‍प्राप्ति के लिये ही। इस शरीर को पाकर जो भगवत्‍प्राप्ति के लिये साधन करता है, उसी का मनुष्‍य जीवन सफल होता है। जो इसमें सुख खोजता है, वह तो असली लाभ से वन्चित ही रह जाता है; क्‍योंकि यह सर्वथा सुखरहित है, इसमें कहीं सुलख लेश भी नहीं है। जिन विषय भोगों के सम्‍बन्ध को मनुष्‍य सुखरूप समझता है, वह बार बार जन्‍म मृत्‍यु के चक्‍कर में डालने वाला होने के कारण वस्‍तुतः दुःखरूप ही है। अतएव इसको सुख रूप न समझकर यह जिस उदे्श्‍य की सिद्धि के लिये मिला है, उस उदेश्‍य को शीघ्र से शीघ्र प्राप्‍त कर लेना चाहिये; क्‍योंकि यह शरीर क्षण भंगुर है, पता नहीं, किस क्षण इसका नाश हो जाय! इसलिये सावधान हो जाना चाहिये। न इसे सुखरूप समझकर विषयों में फँसना चाहिये और न इसे नित्‍य समझकर भजन में देर ही करनी चाहिये। कदाचिंत् अपनी असावधानी में यह व्‍यर्थ ही नष्‍ट हो गया तो फिर सिवा पछताने के और कुछ भी उपाय हाथ में नहीं रह जायगा। श्रुति कहती है –

    इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विंनष्ट:। (केनोपनिषद 2।5)

    ‘यदि इस मनुष्‍य जन्‍म में परमात्मा को जान लिया तो तब तो ठीक है और यदि उसे इस जन्‍म में नहीं जाना तब तो बड़ी भारी हानि है।’ इसीलिये भगवान् कहते हैं कि ऐसे शरीर को पाकर नित्‍य निरन्‍तर मेरा भजन ही करो। क्षणभर भी मुझे मत भूलो।
  15. भगवान् ही सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वलोक महेश्‍वर, सर्वातीत, सर्वमय, निर्गुण-सगुण, निराकार साकार, सौन्‍दर्य, माधुर्य और ऐश्‍वर्य के समुद्र और परम प्रेमस्‍वरूप हैं- इस प्रकार भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्‍य का यथार्थ परिचय हो जाने से जब साधक को यह निश्‍चय हो जाता है कि एकमात्र भगवान् ही हमारे परम प्रेमास्‍पद हैं, तब जगत की किसी भी वस्‍तु में उसकी जरा भी रमणीय बुद्धि नहीं रह जाती। ऐसी अवस्‍था में संसार के किसी दुर्लभ से दुर्लभ भोग में भी उसके लिये कोई आकर्षण नहीं रहता। जब इस प्रकार की स्थिति हो जाती है, तब स्‍वाभाविक ही इस लोक और परलोक की समस्‍त वस्‍तुओं से उसका मन सर्वथा हट जाता है, और वह अनन्‍य तथा परम प्रेम और श्रद्धा के साथ निरन्‍तर भगवान् का ही चिन्‍तन करता रहता है। भगवान् का यह प्रेमपूर्ण चिन्‍तन ही उसके प्राणों का आधार होता है, वह क्षणमात्र की भी उनकी विस्‍मृति को सहन नहीं कर सकता। जिसकी ऐसी स्थिति हो जाती है, उसी को ‘भगवान् में मनवाला’ कहते हैं।
  16. भगवान् ही परमगति हैं, वे ही एकमात्र भर्ता और स्‍वामी हैं, वे ही परम आश्रय और परम आत्मीय संरक्षक हैं, ऐसा मानकर उन्‍हीं पर निर्भर हो जाना, उनके प्रत्‍येक विधान में सदा ही संतुष्‍ट रहना, उन्‍हीं की आज्ञा का अनुसरण करना, भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला आदि के श्रवण, कीर्तन, स्‍मरण आदि में अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को निमग्‍न रखना और उन्‍हीं की प्राप्ति के लिये प्रत्‍येक कार्य करना- इसी का नाम ‘भगवान् का भक्त बनना’ है।
  17. भगवान के मन्दिरों में जाकर उनके मंगलमय विग्रह का यथाविधि पूजन करना, सुविधानुसार अपने अपने घरों में इष्‍टरूप भगवान् की मूर्ति स्‍थापित करके उसका विधिपूर्वक श्रद्धा और प्रेम के साथ पूजन करना, अपने हृदय में या अन्‍तरिक्ष में अपने सामने भगवान् की मानसिक मूर्ति स्‍थापित करके उसकी मानस पूजा करना, उनके वचनों का, उनकी लीला भूमिका और चित्रपट आदि का आदर सत्‍कार करना, माता-पिता, ब्राह्मण, साधु महात्‍मा और गुरुजनों को तथा अन्‍य समस्‍त प्राणियों को भगवान्‌ का ही स्‍वरूप समझकर या अन्‍तर्यामी रूप से भगवान् सबमें व्‍याप्‍त हैं, ऐसा जानकर सबका यथायोग्‍य पूजन, आदर सत्‍कार करना और तन मन धन से सबको यथायोग्‍य सुख पहुँचाने की तथा सबका हित करने की यथार्थ चेष्‍ठा करना- ये सभी क्रियाएँ ‘भगवान् की पूजा’ ही कहलाती हैं।
  18. भगवान् के साकार या निराकार रूप को, उनकी मूर्ति को, चित्रपट को, उनके चरण, चरणपादुका या चरणचिह्नों को, उनके तत्त्व, रहस्‍य, प्रेम, प्रभाव का और उनकी मधुर लीलाओं का व्‍याख्‍यान करने वाले सत शास्‍त्रों को, माता पिता, ब्राह्मण, गुरु, साधु संत और महापुरुषों को तथा विश्‍व के समस्‍त प्राणियों को उन्‍हीं का स्‍वरूप समझकर या अन्‍तर्यामी रूप से उनकों सबमें व्‍याप्‍त जानकर श्रद्धा भक्ति सहित, मन, वाणी और शरीर के द्वारा यथायोग्‍य प्रणाम करना– यही ‘भगवान् को नमस्‍कार करना’ है।
  19. यहाँ 'आत्मा' शब्‍द मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर का वाचक है; तथा इन सबको उपर्युक्‍त प्रकार से भगवान् में लगा देना ही आत्‍मा को उसमें युक्‍त करना है।
  20. इस प्रकार सब कुछ भगवान् को समर्पण कर देना और भगवान् को ही परम प्राप्‍य, परम गति, परम आश्रय और अपना सर्वस्‍व समझना ‘भगवान् के परायण’ होना है।
  21. इसी मनुष्‍य शरीर में ही भगवान् का प्रत्‍यक्ष साक्षात्‍कार हो जाना, भगवान् को तत्त्व से जानकर उनमें प्रवेश कर जाना अथवा भगवान् के दिव्‍य लोक में जाना, उनके समीप रहना अथवा उनके जैसे रूप आदि को प्राप्‍त कर लेना- ये सभी भगवत्‍प्राप्ति ही हैं।

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