महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 24-28

त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 24-28 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 9

क्‍योंकि सम्‍पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्‍वामी भी मैं ही हूँ[1] परन्‍तु वे मुझ परमेश्‍वर को तत्त्व से नहीं जानते, इसी से गिरते हैं अर्थात पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।

सम्बंध- भगवान के भक्त आवागमन को प्राप्त नहीं होते और अन्य देवताओं के उपासक आवागमन को प्राप्त होते हैं, इसका क्‍या कारण है? इस जिज्ञासा पर उपास्‍य के स्‍वरूप और उपवास के भाव से उपासना के फल में भेद होने का नियम बतलाते हैं- देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्‍त होते है, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्‍त होते हैं,[2] भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्‍त होते हैं[3] और मेरा पूजन करने वाले भक्‍त मुझको ही प्राप्‍त होते हैं।[4] इसीलिये मेरे भक्‍तों का पुनर्जन्‍म नहीं होता।

सम्‍बन्‍ध- भगवान् की भक्ति का भगवप्राप्ति रूप महान् फल होने पर उसके साधन में कोई कठिनता नहीं है, बल्कि उसका साधन बहुत ही सुगम है– यही बात दिखलाने के लिये भगवान् कहते हैं– जो कोई भक्‍त[5] मेरे लिये प्रेम से पत्र, पुष्‍प, फल, जल आदि अर्पण करता है,[6]

उस शुद्ध बुद्धि निष्‍काम प्रेमी भक्‍त का प्रेमपूर्वक[7] अर्पण किया हुआ वह पत्र पुष्‍पादि मैं सगुण रूप से प्रकट[8] होकर प्रीति स‍हित खाता हूँ।[9]सम्‍बन्‍ध– यदि ऐसी ही बात है तो मुझे क्‍या करना चाहिये, इस जिज्ञासा पर भगवान् अर्जुन को उसका कर्त्‍तव्‍य बतलाते हैं- है अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है,[10] वह सब मेरे अर्पण कर[11] सम्‍बन्‍ध– इस प्रकार समस्‍त कर्मों को आपके अर्पण करने से क्‍या होगा, इस जिज्ञासा पर कहते हैं।

इस प्रकार, जिसमें समस्‍त कर्म मुझ भगवान् के अर्पण होते हैं- ऐसे सन्‍यास संयोग से युक्‍त चित्‍तवाला तू शुभा शुभ फलरूप कर्मबन्‍धन से मुक्‍त हो जायगा और उनसे मुक्‍त होकर मुझको ही प्राप्‍त होगा।[12]सम्‍बन्‍ध उपर्यक्‍त प्रकार से भगवान् की भक्ति करने वाले को भगवान् की प्राप्ति होती है, दूसरों को नहीं होती– इस कथन से भगवान् विषमता के दोष की आशंका हो सकती है। अतएव उसका निवारण करते हुए भगवान् कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह सारा विश्‍व भगवान् का ही विराट रूप होने के कारण भिन्‍न भिन्‍न यज्ञ पूजादि कर्मों के भोक्‍ता रूप में माने जाने वाले जितने भी देवता हैं, सब भगवान् के ही अंग हैं तथा भगवान् ही उन सबकी आत्मा हैं (गीता 10।20) अतः उन देवताओं के रूप में भगवान् ही समस्‍त यज्ञादि कर्मों के भोक्‍ता हैं। भगवान् ही अपनी योग शक्ति द्वारा सम्‍पूर्ण जगत् की उत्‍पति, स्थिति और प्रलय करते हुए सबको यथा योग्‍य नियम में चलाते हैं वे ही इन्‍द्र, वरुण, यमराज, प्रजापति आदि जितने भी लोकपाल और देवतागण हैं- उन सबके नियन्‍ता हैं इसलिये वही सबके प्रभु अर्थात् महेश्‍वर हैं। (गीता 5।29)
  2. देवताओं की पूजा करना, उनकी पूजा के लिये बतलाये हुए नियमों का पालन करना, उनके निमित्‍त यज्ञादि का अनुष्‍ठान करना, उनके मन्‍त्र का जप करना और उनके निमित्‍त ब्राह्मण को भोजन कराना- इत्‍यादि सभी बाते ‘देवताओं के व्रत’ हैं। इनका पालन करने वाले मनुष्‍यों को अग्‍नी उपासना के फलस्‍परूप जो उन देवताओं के लोकों की, उनके सद्श भोगों की अथवा उनके जैसे रूप की प्राप्ति होती है, वही देवों को प्राप्‍त होना है। पितरों के लिये यथा विधि श्राद्ध- तर्पण करना, उनके निमित्‍त ब्राह्मणों को भोजन कराना, हवन करना, जप करना, पाठ पूजा करना तथा उनके लिये शास्‍त्र में बतलाये हुए व्रत और नियमों का भलीभाँति पालन करना आदि ‘पितरों के व्रत’ हैं और जो मनुष्‍य सकामभाव से इन व्रतों का पालन करते हैं, वे मरने के बाद पितृलोक में जाते है। ये भी अधिक से अधिक देवताओं या दिव्‍य पितरों की आयुपर्यन्‍त ही वहाँ रह सकते हैं। अन्‍त में इनका भी पुनरागमन होता है। यहाँ देव और पितरों की पूजा का निषेध नहीं समझना चाहिये देव पितृ पूजा तो यथा विधि अपने अपने वर्णाश्रम के अधिकारनुसार सबको अवश्‍य ही करनी चाहिये; परन्‍तु वह पूजा यदि सकामभाव से होती है तो अपना अधिक से अधिक फल देकर नष्‍ट हो जाती है और यदि कर्तव्‍यबुद्धि से भवगत आज्ञा मानकर या भवगत पूजा समझकर की जाती है तो वह भगवत् प्राप्ति रूप महान फल में कारण होती है। इसलिये यहाँ समझना चाहिये कि देव पितृकर्म तो अवश्‍य ही करें; परन्‍तु उनमें निष्‍काम भाव लाने का पालन करें।
  3. जो प्रेत और भूतगणों की पूजा करते हैं, उनकी पूजा के नियमों का पालन करते हैं, उनके लिये हवन या दान आदि करते हैं, ऐसे मनुष्‍यों का जो उन-उन भूत प्रेतादि के समान रूप, भोग आदि को प्राप्‍त होना है, वही उनको प्राप्‍त होना हैा भूत-प्रेतों की पूजा तामसी है तथा अनिष्‍ट फल देने वाली है, इसलिये उसको नहीं करना चाहिये।
  4. जो पुरुष भगवान् के सगुण निराकार अथवा साकार- किसी भी रूप का सेवन पूजन और भजन ध्‍यान आदि करते हैं, समस्‍त कर्म उनके अर्पण करते हैं, उनके नाम का जप करते हैं, गुणानुवाद सुनते और गाते हैं तथा इसी प्रकार भगवद भक्ति विषयक अनेक प्रकार के साधन करते हैं, वे भगवान् का पूजन करने वाले भक्‍त हैं और उनका भगवान् के दिव्‍य लोक में जाना, भगवान् के समीप रहना, उनके जैसे ही दिव्‍य रूप को प्राप्‍त होना अथवा उनमें लीन हो जाना– यही भगवान् को प्राप्‍त होना है।
  5. इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि किसी भी वर्ण, आश्रम और जाति का कोई भी मनुष्‍य पत्र, पुष्‍प, फल, जल आदि मेरे अर्पण कर सकता है। बल, रूप, धन, आयु, जाति, गुण और विद्या आदि के कारण मेरी किसी में भेदबुदि नहीं है; अवश्‍य ही अर्पण करने वाले का भाव विदुर और शबरी आदि की भाँति सर्वथा शुद्र और प्रेमपूर्ण होना चाहिये।
  6. यहाँ पत्र, पुष्‍प, फल और जल का नाम लेकर यह भाव दिखलाया गया है कि जो वस्‍तु साधारण मनुष्‍यों को बिना किसी परिश्रम, हिंसा और व्‍यय के अनायास मिल सकती है- ऐसी कोई भी वस्‍तु भगवान् के अर्पण की जा सकती है। भगवान् पूर्णकाम होने के कारण वस्‍तु के भूखे नहीं हैं, उनको तो केवल प्रेम की ही आवश्‍यकता है। ‘मुझ जैसे साधारण से साधारण मनुष्‍य द्वारा अर्पण की हुई छोटी से छोटी वस्‍तु भी भगवान् सहर्ष स्‍वीकार कर लेते हैं, यह उनकी कैसी महत्ता है!’ इस भाव से भावित होकर प्रेम विहल चित्त से किसी भी वस्‍तु को भगवान् के समर्पण करना, उसे भक्तिपूर्वक भगवान् के अर्पण करना है।
  7. पत्र, पुष्‍प आदि कोई भी वस्‍तु जो प्रेमपूर्वक समर्पण की जाती है, उसे ‘भक्‍त्‍युपहत’ कहते हैं। इसके प्रयोग से भगवान् यह भाव दिखलाया है कि बिना प्रेम के दी हुई वस्‍तु को मैं स्‍वीकार नहीं करता और जहाँ प्रेम होता है तथा जिसको मुझे वस्‍तु अर्पण करने में और मेरे द्वारा उसके स्‍वीकार हो जाने में सच्‍चा आनन्‍द होता है, वहाँ उस भक्‍त के द्वारा अर्पण की हुई वस्‍तु बहुत प्रेम से स्‍वीकार कर लेता हूँ।
  8. इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार शुद भाव से प्रेमपूर्वक समर्पण की हुई वस्‍तुओं को मैं स्‍वयं उस भक्‍त के सम्‍मुख प्रत्‍यक्ष प्रकट होकर खा लेता हूँ अर्थात् जब मनुष्‍यादि के रूप में अवतीर्ण होकर संसार में विचरता हूँ, तब तो उस रूप में वहाँ पहुँचकर और अन्‍य समय में उस भक्‍त के इच्‍छानुसार रूप में प्रकट होकर उसकी दी हुई वस्‍तु का भोग लगाकर उसे कृतार्थ कर देता हूँ।
  9. जिसका अन्‍तःकरण शुद्ध हो, उसे ‘शुद्धबुदि’ कहते हैं। इसका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि अर्पण करने वाले का भाव शुद न हो तो बाहर से चाहे जितने शिष्‍टाचार के साथ, चाहे जितनी उत्‍तम से उत्‍तम सामग्री मुझे अर्पण की जाय, मैं उसे कभी स्‍वीकार नहीं करता। मैंने दुर्योधन का निमन्‍त्रण अस्‍वीकार करके भाव शुद्ध होने के कारण विदुर के घर पर जाकर प्रेमपूर्वक भोजन किया, सुदामा के चिउरों का बड़ी रुचि के साथ भोग लगाया, द्रौपदी की बटलोई में बचे हुए ‘पत्‍ते’ को खाकर विश्‍व को तृप्‍त कर दिया, गजेन्‍द्र द्वारा अर्पण किया हुए ‘पुष्‍प’ को स्‍वयं वहाँ पहुँचकर स्‍वीकार किया, शबरी की कुटिया पर जाकर उसके दिये हुए ‘फलों’ का भोग लगाया और रन्तिदेव के ‘जल’ को स्‍वीकार करके उसे कृतार्थ किया। इसी प्रकार प्रत्‍येक भक्‍त की प्रेमपूर्वक अर्पण की हुई वस्‍तु को मैं सहर्ष स्‍वीकार करता हूँ।
  10. इससे भगवान् ने सब प्रकार के कर्त्‍तव्‍य कर्मों का समाहार किया है अभिप्राय यह है कि यज्ञ, दान और तप के अतिरिक्‍त जीविका निर्वाह आदि के लिये किये जाने वाले वर्ण, आश्रम और लोकव्‍यवहार के कर्म तथा भगवान् का भजन, ध्‍यान आदि जितने भी शास्‍त्रीय कर्म हैं, उन सबका समावेश ‘यत्‍करोषि’ में, शरीर पालन के निमित्‍त किये जाने वाले खान पान आदि कर्मों का ‘यदश्‍नासि’ में, पूजन और हवन सम्‍बन्‍धी समस्‍त कर्मों का ‘यज्‍जुहोषि ‘ में, सेवा और दान सम्‍बन्‍धी समस्‍त कर्मों ‘यद्ददासि’ में और संयम तथा तप सम्‍बन्‍धी समस्‍त कर्मों का समावेश ‘यत्‍तपस्‍यसि’ में किया गया है (गीता 17।14-17)
  11. साधारण मनुष्‍य की उन कर्मों में ममता और आसक्ति होती है तथा वह उनमें फल की कामना रखता है अतएव समस्‍त कर्मों में ममता, आसक्ति और फल की इच्‍छा का त्‍याग कर देना और यह समझना कि समस्‍त जगत् भगवान् का है, मेरे मन, बुद्धि, शरीर तथा इन्द्रिय भी भगवान् के हैं और मैं स्‍वयं भी भगवान् का हूँ, इसीलिये मेरे द्वारा जो कुछ भी यज्ञादि कर्म किये जाते हैं, वे सब भगवान् के ही हैं। कठपुतली को नचाने वाले सूत्रधार की भाँति भगवान् ही मुझसे यह सब कुछ करवा रहे हैं। मैं तो केवल निमित्‍त मात्र हूँ- ऐसा समझकर जो भगवान् ही मुझसे यह सब कुछ करवा रहे हैा मैं तो केवल निमित्‍त मात्र हूँ- ऐसा समझकर जो भगवान् के आज्ञानुसार भगवान् की ही प्रसन्‍न्‍ाता के लिये निष्‍काम भाव से उपर्युक्‍त कर्मों का करना है, यही उन कर्मों को भगवान् के अर्पण करना है। पहले किसी दूसरे उद्देश्‍य से किये हुए कर्मों को पीछे से भगवान् को अर्पण करना, कर्म करते करते बीच में ही भगवान् के अर्पण कर देना, कर्म समाप्‍त होने के साथ साथ भगवान् के अर्पण कर देना अथवा कर्मों का फल ही भगवान् के अर्पण करना इस प्रकार का अर्पण करना भी भगवान् के ही अर्पण करना है। पहले इसी प्रकार होता है। ऐसा करते करते ही उपर्युक्‍त प्रकार से पूर्णतया भगवदर्पण होता है।
  12. भिन्‍न भिन्‍न शुभाशुभ कर्मों के अनुसार स्वर्ग, नरक, और पशु, पक्षी एवं मनुष्‍यादि लोकों के अंदर नाना प्रकार की योनियों में जन्‍म लेना तथा सुख दुःखों का भोग करना– यही शुभाशुभ फल है, इसी को कर्मबन्‍धन कहते हैं; क्‍योंकि कर्मों का फल भोगना ही कर्मबन्‍धन में पड़ना है। उपर्युक्‍त प्रकार से समस्त कर्म भगवान् के अर्पण कर देने वाला मनुष्‍य कर्म फलस्‍वरूप पुनर्जन्‍म से और सुख दुःखों के भोग से मुक्‍त हो जाता है, यही शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्‍धन से मुक्‍त हो जाना है। मरने के बाद भगवान् के परम धाम में पहुँच जाना या इसी जन्‍म में भगवान् को प्रत्‍यक्ष प्राप्‍त कर लेना ही उस कर्मबन्‍धन से मुक्‍त होकर भगवान को प्राप्‍त होना है।

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