महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 27 श्लोक 7-15

सप्तविंश (27) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 7-15 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 3

किंतु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्‍त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।[1] सम्‍बन्‍ध- अर्जुन ने यह पूछा था कि आप मुझे घोर कर्म में क्‍यों लगाते हैं, उसके उत्तर में ऊपर से कर्मों का त्‍याग करने वाले मिथ्‍याचारी की निन्‍दा और कर्मयोगी की प्रशंसा करके अब उन्‍हें कर्म करने के लिये आज्ञा देते है- तू शास्त्रविहित कर्तव्‍यकर्म कर; क्‍योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है[2] तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा। सम्‍बन्‍ध- यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि शास्‍त्रविहित यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्म भी तो बन्‍धन के हेतु माने गये हैं; फिर कर्म न करने की अपेक्षा कर्म श्रेष्ठ कैसे है; इस पर कहते हैं-

यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्‍य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिये हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्‍य कर्म कर। सम्‍बन्‍ध- पूर्व श्‍लोक में भगवान् ने यह बात कही की यज्ञ के निमित्त कर्म करने वाला मनुष्‍य कर्मों से नहीं बँधता; इसलिये यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि यज्ञ किसको कहते है, उसे क्‍यों करना चाहिये और उसके लिये कर्म करने वाला मनुष्‍य कैसे नहीं बँधता। अतएव इन बातों को समझाने के लिये भगवान् ब्रह्मा जी के वचनों का प्रमाण देकर कहते हैं- प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञसहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ[3] तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो। तुम लोग यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्‍नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्‍नत करें। इस प्रकार नि:स्‍वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्‍नत करते हुए तुम लोग परम कल्‍याण को प्राप्‍त हो जाओगे।[4]

यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्‍छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्‍वयं भोगता है, वह चोर ही है।[5] यज्ञ से बचे हुए अन्‍न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिये ही अन्‍न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं। सम्‍बन्‍ध- यहाँ यह जिज्ञास होती है कि यज्ञ न करने से क्‍या हानि है; इस पर सृष्टि चक्र को सुरक्षित रखने के लिये यज्ञ की आवश्‍यकता का प्रतिपादन करते हैं।[6] सम्‍पूर्ण प्राणी अन्‍न से उत्‍पन्‍न होते हैं। अन्‍न की उत्‍पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्‍पन्‍न होने वाला है। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्‍पन्‍न और वेद को अविनाशी परमात्‍मा से उत्‍पन्‍न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्‍यापी परम अक्षर परमात्‍मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ स विशिष्‍यते पद का अभिप्राय कर्मयोगी को पूर्ववर्णित केवल मिथ्‍याचारी की अपेक्षा ही श्रेष्ठ बतलाना नहीं है, क्‍योंकि पूर्व श्‍लोक में वर्णित मिथ्‍याचारी तो आसुरी सम्‍पदा वाला दम्‍मी है। उसकी अपेक्षा तो सकाम भाव से विहित कर्म करने वाला मनुष्‍य भी बहुत श्रेष्ठ है; फिर दैवी सम्‍पदायुक्त कर्मयोगी को मिथ्‍याचारी की अपेक्षा श्रेष्ठ बतलाना तो किसी वेश्‍या की अपेक्षा सती स्‍त्री को श्रेष्ठ बतलाने की भाँति कर्मयोगी की स्‍तुति में निन्‍दा करने के समान है। अत: यहाँ यही मानना ठीक है कि स विशिष्‍यते से कर्मयोगी को सर्वश्रेष्ठ बतलाकर उसकी प्रशंसा की गयी है।
  2. इस कथन से भगवान् ने अर्जुन से उस भ्रम का निराकरण किया है, जिसके कारण उन्‍होनें यह समझ लिया था कि भगवान् के मत में कर्म करने की अपेक्षा उनका न करना श्रेष्ठ है। अभिप्राय यह है कि कर्तव्‍यकर्म करने से मनुष्‍य का अन्‍त:करण शुद्ध होता है तथा कर्तव्‍य कर्मों का त्‍याग करने से वह पाप का भागी होता है एवं निद्रा, आलस्‍य और प्रमाद में फँसकर अधोगति को प्राप्‍त होता है (गीता 14।18); अत: कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना सर्वथा श्रेष्ठ है।
  3. समस्‍त मनुष्‍यों के लिये वर्ण, आश्रम, स्‍वभाव और परिस्थिति के भेद से भिन्‍न-भिन्‍न यज्ञ, दान, तप, प्राणायाम, इन्द्रिय संयम, अध्‍ययन अध्‍यापन, प्रजापालन, युद्ध, कृषि, वाणिज्‍य और सेवा आदि कर्तव्‍य कर्मों से सिद्ध होने वाला जो स्‍वधर्म है- उसका नाम यज्ञ है।
  4. इस कथन से ब्रह्मा जी ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार अपने-अपने स्‍वार्थ का त्‍याग करके एक दूसरे को उन्‍नत बनाने के लिये अपने कर्तव्‍य का पालन करने से तुम लोग इस सांसारिक उन्‍नति के साथ साथ परम कल्‍याणरूप मोक्ष को भी प्राप्‍त हो जाओगे। अभिप्राय यह है कि यहाँ देवताओं के लिये तो ब्रह्मा जी का यह आदेश है कि मनुष्‍य यदि तुम लोगों की सेवा, पूजा, यज्ञादि न करें तो भी तुम कर्तव्‍य समझकर उनकी उन्‍नति करो और मनुष्‍यों के प्रति यह आदेश है कि देवताओं की उन्‍नति और पुष्टि के लिये ही स्‍वार्थ त्‍यागपूर्वक देवताओं की सेवा, पूजा, यज्ञादि कर्म करो। इसके सिवा अन्‍य ऋषि, पितर, मनुष्‍य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि को भी नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वधर्म पालन के द्वारा सुख पहुँचाओ।
  5. देवता लोग सृष्टि के आदिकाल से मनुष्‍यों को सुख पहुँचाने के लिये- उनकी आवश्‍यकताओं को पूर्ण करने के निमित्त पशु, पक्षी, औषध, वृक्ष, तृण आदि के सहित सबकी पुष्टि कर रहे हैं और अन्‍न, जल, पुष्‍प, फल, धातु आदि मनुष्‍योपयोगी समस्‍त वस्‍तुएँ मनुष्‍यों को दे रहे हैं; जो मनुष्‍य उन सब वस्‍तुओं को उन देवताओं का ऋण चुकाये बिना- उनका न्‍यायोचित स्‍वत्‍व उन्‍हें अर्पण किये बिना स्‍वयं अपने काम में लाता है, वह चोर होता है।
  6. सृष्टि कार्य के सुचारू रूप से संचालन में और सृष्टि के जीवों का भलीभाँति भरण-पोषण होने में पाँच श्रेणी के प्राणियों का परस्‍पर सम्‍बन्‍ध है- देवता, ऋषि, पितर, मनुष्‍य और अन्‍य प्राणी है। इन पाँचों के सहयोग से ही सबकी पुष्टि होती है। देवता समस्‍त संसार को इष्ट भोग देते हैं, ऋषि महर्षि सबको ज्ञान देते हैं, पितर लोग संतान का भरण-पोषण करते और हित चाहते हैं, मनुष्‍य कर्मों के द्वारा सबकी सेवा करते हैं और पशु, पक्षी, वृक्षादि सबके सुख के साधन रूप में अपने को समर्पित किये रहते हैं। इन पाँचों में योग्‍यता, अधिकार और साधन सम्‍पन्‍न होने के कारण सबकी पुष्टि का दायित्‍व मनुष्‍य पर है। इसी से मनुष्‍य शास्‍त्रीय कर्मों के द्वारा सबकी सेवा करता है। पंचमहायज्ञ से यहाँ लोकसेवारूप शास्‍त्रीय सत्‍कर्म की विवक्षित है। इस दृष्टि से मनुष्‍य का यह कर्तव्‍य है कि वह जो कुछ भी कमावे, उसमें इन सबका भाग समझे; क्‍योंकि वह सबकी सहायता और सहयोग से कमाता खाता है। इसीलिये जो यज्ञ करने के बाद बचे हुए अन्‍न को अर्थात इन सबको उनका प्राप्‍य भाग देकर उससे बचे हुए अन्‍न को खाता है, उसी को शास्‍त्रकार अमृताशी (अमृत खाने वाला) बतलाते हैं।

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