महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 27 श्लोक 16-26

सप्तविंश (27) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 16-26 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 3

हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्‍परा से प्रचलित सृष्टि चक्र[1] के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्‍य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों मे रमण करने वाला पापायु पुरुष व्‍यर्थ ही जीता है। परंतु जो मनुष्‍य आत्‍मा में ही रमण करने वाला और आत्‍मा में ही तृप्त तथा आत्‍मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्‍य नहीं है।[2] क्‍योंकि उस महापुरुष को इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्‍पूर्ण प्राणियों में भी इसका किचिंत मात्र भी स्‍वार्थ का सम्‍बन्‍ध नहीं रहता। सम्बंध– यहाँ तक भगवान् ने बहुत से हेतु बतलाकर यह बात सिद्ध की कि जब तक मनुष्‍य को परम् श्रेय रूप परमात्‍मा की प्राप्ति न हो जाये, तब तक उसके लिये स्‍वधर्म का पालन करना अर्थात् अपने वर्णाश्रम के अनुसार विहित कर्मों का अनुष्ठान नि:स्‍वार्थ भाव से करना अवश्‍य कर्तव्‍य है और परमात्‍मा को प्राप्त हुए पुरुष के लिये किसी प्रकार का कर्तव्‍य न रहने पर भी उसके मन इन्द्रियों द्वारा लोक संग्रह के लिये प्रारम्‍भानुसार कर्म होते हैं। अब उपर्युक्त वर्णन का लक्ष्‍य कराते हुए भगवान् अर्जुन को अनासक्त भाव से कर्तव्‍य कर्म करने के लिये आज्ञा देते हैं– इसलिये तू निरन्‍तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्‍य कर्म को भलीभाँति करता रहा; क्‍योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्‍य परमात्‍मा को प्राप्‍त हो जाता है। जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे।[3] इसलिये तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्‍य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है।[4] सम्‍बन्‍ध– पूर्व श्‍लोक में भगवान् ने अर्जुन को लोकसंग्रह की ओर देखते हुए कर्मों का करना उचित बतलाया; इस पर यह जिज्ञासा होती है कि कर्म करने से किस प्रकार लोकसंग्रह होता है; अत: यही बात समझाने के लिये कहते हैं–

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्‍य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं,[5] समस्‍त मनुष्‍य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है। हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्‍य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्‍य वस्‍तु अप्राप्‍त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ। क्‍योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाये; क्‍योंकि मनुष्‍य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।[6] इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्‍य नष्ट भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्‍त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ।[7] इसलिये हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म कर।[8] परमात्‍मा के स्‍वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिये कि वह शास्‍त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बु‍द्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्‍पन्‍न न करें; किंतु स्‍वयं शास्‍त्रविहित समस्‍त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावें।[9]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुष्‍य के द्वारा की जाने वाली शास्‍त्रविहित क्रियाओं से यज्ञ होता है, यज्ञ से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्‍न होता है, अन्‍न से प्राणी उत्‍पन्‍न होते हैं, पुन: उन प्राणियों के ही अन्‍तर्गत मनुष्‍य के द्वारा किये हुए कर्मों से यज्ञ और यज्ञ से वृष्टि होती है। इस तरह यह सृष्टि परम्‍परा सदा से चक्र की भाँति चली आ रही है।
  2. उपुर्यक्त विशेषणों से युक्त महापुरुष परमात्‍मा को प्राप्त है, अतएव उसके समस्‍त कर्तव्‍य समाप्‍त हो चुके हैं, वह कृतकृत्‍य हो गया है; क्‍योंकि मनुष्‍य के लिये जितना भी कर्तव्‍य का विधान किया गया है, उन सबका उद्देश्‍य केवल मात्र एक परम कल्‍याण स्‍वरूप परमात्‍मा को प्राप्त करना है; अतएव वह उद्देश्‍य जिसका पूर्ण हो गया, उसके लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता, उसके कर्तव्‍य की समाप्ति हो जाती है।
  3. राजा जनक की भाँति ममता, आसक्ति और कामना का त्‍याग करके केवल परमात्‍मा की प्राप्ति के लिये ही कर्म करन वाले अश्वपति, इक्ष्वाकु, प्रह्लाद, अम्बरीष आदि जितने भी महापुरुष हो चुके हैं, वे सब प्रधान प्रधान महापुरुष आसक्ति रहित कर्मों के द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे तथा और भी आज तक बहुत से महापुरुष ममता, आसक्ति और कामना का त्‍याग करके कर्मयोग द्वारा परमात्‍मा को प्राप्त कर चुके हैं; यह कोई नई बात नहीं हैं। अत: यह परमात्‍मा की प्राप्ति का स्‍वतन्‍त्र और निश्चित मार्ग है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। इसके अतिरिक्‍त कर्मों द्वारा जिसका अन्‍त:करण शुद्ध हो जाता है, उसे परमात्‍मा की कृपा से तत्त्‍व ज्ञान अपने आप मिल जाता है (गीता 4।38) त‍था कर्मयोगयुक्त मुनि तत्‍काल ही परमात्‍मा को प्राप्त हो जाता है (गीता 5।6)– इस कथन से भी इसकी अनादिता सिद्ध होती है।
  4. समस्‍त प्राणियों के भरण पोषण और रक्षण का दायित्‍व मनुष्‍य पर है; अत: अपने वर्ण, आश्रम, स्‍वभाव और परिस्थिति के अनुसार कर्तव्‍य कर्मों का भलीभाँति आचरण करके जो दूसरे लोगों को अपने आदर्श के द्वारा दुगुर्ण दुराचार से हटाकर स्‍वधर्म में लगाये रखना है– यही लोकसंग्रह है अत: कल्‍याण चाहने वाले मनुष्‍य को परम श्रेयरूप परमेश्वर की प्राप्ति के लिये तो आसक्ति से रहित होकर कर्म करना उचित है ही, इसके सिवा लोकसंग्रह के लिये भी मनुष्‍य को कर्म करते रहना उचित है, उसका त्‍याग करना किसी प्रकार भी उचित नहीं है।
  5. श्रेष्ठ पुरुष स्‍वयं आचरण करके और लोगों को शिक्षा देकर जिस बात को प्रामाणिक कर देता है अर्थात् लोगों के अन्‍त:करण में विश्वास करा देता है कि अमुक कर्म अमुक मनुष्‍य को इस प्रकार करना चाहिये, उसी के अनुसार साधारण मनुष्‍य चेष्टा करने लग जाते हैं।
  6. बहुत लोग तो मुझ बड़ा शक्तिशाली और श्रेष्ठ समझते हैं और बहुत से मर्यादा पुरुषोत्तम समझते हैं, इस कारण जिस कर्म को मैं जिस प्रकार करता हूँ, दूसरे लोग भी मेरी देखा-देखी उसे उसी प्रकार करते हैं अर्थात् मेरी नकल करते हैं। ऐसी स्थिति में यदि मैं कर्तव्‍य कर्मों की अवहेलना करने लगूँ, उनमें सावधानी के साथ विधिपूर्वक न बरतूँ तो लोग भी उसी प्रकार लग जायँ और ऐसा करके स्‍वार्थ और परमार्थ दोनों से वंचित रह जायँ। अतएव लोगों को कर्म करने की रीति सिखलाने के लिये मैं समस्‍त कर्मों में स्‍वयं बड़ी सावधानी के साथ विधिवत् बरतता हूँ, कभी कहीं भी जरा भी असावधानी नहीं करता।
  7. जिस प्रकार कर्तव्‍यभ्रष्ट हो जाने से लोगों में सब प्रकार की संकरता फैल जाती है, उस समय मनुष्‍य भोगपरायण और स्‍वार्थान्‍ध होकर भिन्‍न भिन्‍न साधनों से एक दूसरे का नाश करने लग जाते हैं, अपने अत्‍यन्‍त क्षुद्र और क्षणिक सुखोपभोग के लिये दूसरों का नाश कर डालने में जरा भी नहीं हिचकते। इस प्रकार अत्‍याचार बढ़ जाने पर उसी के साथ-साथ नयी-नयी दैवी वि‍पत्तियाँ भी आने लगती हैं, जिनके कारण सभी प्राणियों के लिये आवश्‍यक खान पान और जीवनधारण की सुविधाएँ प्राय: नष्ट हो जाती हैं; चारों ओर महामारी, अनावृष्टि, जल प्रलय, अकाल, अग्निकोप, भूकम्‍प और उल्‍कापात आदि उत्‍पात होने लगते हैं। इससे समस्‍त प्रजा का विनाश हो जाता है। अत: भगवान् ने मैं समस्‍त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ इस वाक्‍य से यह भाव दिखलाया है कि यदि मैं शास्‍त्रविहित कर्तव्‍य कर्मों का त्‍याग कर दूँ तो मुझे उपर्युक्त प्रकार से लोगों को उच्‍छृखंल बनाकर समस्‍त प्रजा का नाश करने में निमित्त बनना पड़े।
  8. स्‍वाभाविक स्‍नेह, आस‍क्ति और भविष्‍य में उससे सुख मिलने की आशा होने के कारण माता अपने पुत्र का जिस प्रकार सच्‍ची हार्दिक लगन, उत्‍साह और तत्‍परता के साथ लालन पालन करती हैं, उस प्रकार दूसरा कोई नहीं कर सकता; इसी तरह जिस मनुष्‍य की कर्मों में और उनसे प्राप्त होने वाले भोगों में स्‍वाभाविक आसक्ति होती है और उनका विधान करने वाले शास्‍त्रों में जिसका विश्वास होता है, वह जिस प्रकार सच्‍ची लग्‍न से श्रद्धा और विधिपूर्वक शास्‍त्रविहित कर्मों को साड्गोपाड्ग करता है, उस प्रकार जिनकी शास्‍त्रों में श्रद्धा और शास्‍त्रविहित कर्मों में प्रवृत्ति नहीं है, वे मनुष्‍य नहीं कर सकते। अतएव यहाँ यथा और तथा का प्रयोग करके भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा अभाव होने पर भी ज्ञानी महात्‍माओं को केवल लोकसंग्रह के लिये कर्मासक्त मनुष्‍यों की भाँति ही शास्‍त्रविहित कर्मों का विधिपूर्वक साड्गोपाड्ग अनुष्ठान करना चाहिये।
  9. मनुष्‍यों को निष्‍काम कर्म का और तत्त्‍व ज्ञान का उपदेश देते समय ज्ञानी को इस बात का पूरा ख्‍याल रखना चाहिये कि उसके किसी आचार-व्‍यवहार और उपदेश से उनके अन्‍त:करण में कर्तव्‍य कर्मों के या शस्‍त्रादि के प्रति किसी प्रकार की अश्रद्धा या संशय उत्‍पन्‍न न हो जाय; क्‍योंकि ऐसा हो जाने से वो कुछ शास्‍त्रविहित कर्मों का श्रद्धापूर्वक सकामभाव से अनुष्ठान कर रहे हैं, उसका भी ज्ञान के या निष्‍काम भाव के नाम पर परित्‍याग कर देंगे। इस कारण उन्‍नति के बदले उनका वर्तमान स्थिति से भी पतन हो जायेगा। अतएव भगवान् के कहने का यहाँ यह भाव नहीं है कि अज्ञानियों को तत्त्‍वज्ञान का उपदेश नहीं इेना चाहिये या निष्‍काम भाव का तत्त्‍व नहीं समझना चाहिये, उनका तो यहाँ यही कहना है कि अज्ञानियों के मन में न तो ऐसा भाव उत्‍पन्‍न होने देना चाहिये कि तत्त्‍व ज्ञान की प्राप्ति के लिये या तत्त्‍वज्ञान प्राप्त होने के बाद कर्म अनावश्‍यक है, न यही भाव पैदा होने देना चाहिये कि फल की इच्‍छा न हो तो कर्म करने की जरूरत क्‍या है और न इसी भ्रम में रहने देना चाहिये कि फलासक्तिपूर्वक सकाम भाव से कर्म करके स्‍वर्ग प्राप्त कर लेना ही बड़े से बड़ा पुरुषार्थ है, इससे बढ़कर मनुष्‍य का और कोई कर्तव्‍य ही नहीं है; बल्कि अपने आचरण तथा उपदेशों द्वारा उनके अन्‍त:करण से आसक्ति और कामना के भावों को हटाते हुए उनको पूर्ववत् श्रद्धापूर्वक कर्म करने में लगाये रखना चाहिये।

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