महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 14 श्लोक 58-77

चतुर्दश (14) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 58-77 का हिन्दी अनुवाद


  • राजन! उस समय नीचे घुमाने, ऊपर घुमाने, अगल-बगल में चारों ओर घुमाने की और फिर ऊपर उठाने की क्रियाएँ इतनी तेजी से हो रही थीं कि ढाल और तलवार में कोई अन्‍तर ही नहीं दिखायी देता था। (58)
  • तब अभिमन्‍यु सहसा गर्जता हुआ उछलकर पौरव के रथ के ईषादण्‍ड पर चढ़ गया। फिर उसने पौरव की चुटिया पकड़ ली। (59)
  • उसने पैरों के आघात से पौरव के सारथि को मार डाला और तलवार से उनके ध्‍वज को काट गिराया। फिर जैसे गरुड़ समुद्र को क्षुब्‍ध करके नाग को पकड़कर दे मारते हैं, उसी प्रकार उसने भी पौरव को रथ से नीचे पटक दिया। (60)
  • उस समय सम्‍पूर्ण राजाओं ने देखा, जैसे सिंह ने किसी बैल को गिराकर अचेत कर दिया हो, उसी प्रकार अभिमन्‍यु ने पौरव को गिरा दिया है। वे अचेत पड़े हैं और उनके सिर के बाल कुछ उखड़ गये हैं। (61)
  • पौरव अभिमन्‍यु के वश में पड़कर अनाथ की भाँति खींचे जा रहे हैं और गिरा दिेये गये हैं। यह देखकर जयद्रथ सहन न कर सका। (62)
  • वह मोर की पाँख से आच्‍छादित और सैकड़ों क्षुद्रघंटिकाओं के समूह से अलंकृत ढाल और खड्ग लेकर गर्जता हुआ अपने रथ से कूद पड़ा। (63)
  • तब अर्जुनपुत्र अभिमन्‍यु जयद्रथ को आते देख पौरव को छोड़कर तुरंत ही पौरव के रथ से कूद पड़ा और बाज के समान जयद्रथ पर झपटा। (64)
  • अभिमन्‍यु शत्रुओं के चलाये हुए प्रास, पट्टिश और तलवारों को अपनी तलवार से काट देते और अपनी ढाल पर भी रोक लेते थे। (65)
  • शूर एवं बलवान अभिमन्‍यु सैनिकों को अपना बाहुबल दिखाकर पुन: विशाल खड्ग और ढाल हाथ में ले अपने पिता के अत्‍यन्‍त वैरी वृद्धक्षत्र के पुत्र जयद्रथ के सम्‍मुख उसी प्रकार चला, जैसे सिंह हाथी पर आक्रमण करता है। (66-67)
  • वे दोनो खड्ग, दन्‍त और नख का आयुध के रूप में उपयोग करते थे और बाघ तथा सिंहों के समान एक-दूसरे से भिड़कर बड़े हर्ष और उत्‍साह के साथ परस्‍पर प्रहार कर रहे थे। (68)
  • ढाल और तलवार के सम्‍पात[1], अविघात[2] और निपात[3] की कला में उन दोनों पुरुषसिंह अभिमन्‍यु और जयद्रथ में किसी को कोई अन्‍तर नहीं दिखायी देता था। (69)
  • खड्ग का प्रहार, खड्ग-संचालन के शब्‍द, अन्‍यान्‍य शस्‍त्रों के प्रदर्शन तथा बाहर-भीतर को चोटें करने में उन दोनों वीरों की समान योग्‍यता दिखायी देती थी। (70)
  • वे दोनों महामनस्‍वी वीर बाहर और भीतर चोट करने के उत्‍तम पैंतरे बदलते हुए पंखयुक्‍त दो पर्वतों के समान दृष्टिगोचर हो रहे थे। (71)
  • इसी समय तलवार चलाते हुए यशस्‍वी सुभद्राकुमार की ढाल पर जयद्रथ ने प्रहार किया। (72)
  • उस चमकीली ढाल पर सोने का पत्र जड़ा हुआ था। उसके ऊपर जयद्रथ ने जब बलपूर्वक प्रहार किया, तब उससे टकराकर उसका वह विशाल खड्ग टूट गया। (73)
  • अपनी तलवार टूटी हुई जानकर जयद्रथ छ: पग उछल पड़ा और पलक मारते-मारते पुन: आने रथ पर बैठा हुआ दिखायी दिया। (74)
  • उस समय अर्जुनपुत्र अभिमन्‍यु युद्ध से मुक्‍त होकर अपने उत्‍तम रथ पर जा बैठा। इतने ही में सब राजाओं ने एक साथ आकर उसे सब ओर से घेर लिया। (75)
  • तब महाबली अर्जुनकुमार ने ढाल और तलवार ऊपर उठाकर जयद्रथ की ओर देखते हुए बड़े जोर से सिंहनाद किया। (76)
  • शत्रुवीरों का संहार करने वाले सुभद्राकुमार ने सिन्‍धुराज जयद्रथ को छोड़कर, जैसे सूर्य सम्‍पूर्ण जगत को तपाते हैं, उसी प्रकार उस सेना को संताप देना आरम्‍भ किया। (77)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रहार
  2. बदले के लिये प्रहार
  3. ऊपर-नीचे तलवार चलाने

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