नवत्यधिकशततम (190) अध्याय: द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: नवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 41-59 का हिन्दी अनुवाद
उन ऋषियों की यह बात सुनकर, भीमसेन के कथन पर विचार कर और रणभूमि में धृष्टद्युम्न को सामने देखकर आचार्य द्रोण का मन उदास हो गया। वे संदेह में पड़े हुए थे, अत: उन्होंने व्यथित होकर अपने पुत्र को मारे जाने या नहीं मारे जाने का समाचार कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर से पूछा। द्रोणाचार्य के मन में यह दृढ़ विश्वास था कि कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर तीनों लोकों के राज्य के लिये भी किसी प्रकार झूठ नहीं बोलेंगे। अत: उन द्विजश्रेष्ठ ने उन्हीं से वह बात पूछी, दूसरे किसी से नहीं, क्योंकि बचपन से ही पाण्डु पुत्र की सच्चाई में आचार्य का विश्वास था। उस समय योद्धाओं में श्रेष्ठ द्रोण इस पृथ्वी को पाण्डव रहित कर डालने के लिय उद्यत थे। उनका यह विचार जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने व्यथित हो धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- राजन! यदि क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य आधे दिन भी युद्ध करते रहें, तो मैं सच कहता हूं, तुम्हारी सेना का सर्वनाश हो जायगा। अत: तुम द्रोण से हम लोगों को बचाओं, इस अवसर पर असत्य भाषण का महत्त्व सत्य से भी बढ़कर है। किसी की प्राण रक्षा के लिये यदि कदाचित असत्य बोलना पड़े तो उस बोलने वाले झूठ का पाप नहीं लगता'। वे दोनों इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि भीमसेन बोल उठे- महाराज! महामना द्रोण के वध का ऐसा उपाय सुनकर मैंने आपकी सेना में विचरने वाले मालव नरेश इन्द्र वर्मा के अश्वत्थामा नाम से विख्यात गजराज को, जो ऐरावत के समान शक्तिशाली था, युद्ध में पराक्रम करके मार डाला। फिर द्रोणाचार्य के पास जाकर कहा- ब्रह्मन! अश्वत्थामा मारा गया, अब युद्ध से निवृत हो जाइये। परंतु इन पुरुष प्रवर द्रोण ने निश्चय ही मेरी बात पर विश्वास नहीं किया है। नरेश्वर! अत: आप विजय चाहने वाले भगवान श्रीकृष्ण की बात मान लीजिये और द्रोणाचार्य से कह दीजिये कि अश्वत्थामा मारा गया। राजन! जनेश्वर! आपके कह देने पर द्विजश्रेष्ठ द्रोण कदापि युद्ध नहीं करेगे, क्योंकि आप तीनों लोकों मे सत्यवादी के रूप में विख्यात हैं। 'महाराज! भीम की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण के आदेश से प्रेरित हो भावीवश राजा युधिष्ठिर वह झूठी बात कहने को तैयार हो गये। एक ओर तो वे असत्य के भय में डूबे हुए थे और दूसरी ओर विजय की प्राप्ति के लिये भी आसक्तिपूर्वक प्रयत्नशील थे, अत: राजन! उन्होंने 'अश्वत्थामा मारा गया' यह बात तो उच्च स्वर से कही, परंतु 'हाथी का वध हुआ है', यह बात धीरे से कही। इसके पहले युधिष्ठिर का रथ पृथ्वी से चार अंगुल ऊँचे रहा करता था, किंतु उस दिन उनके इस प्रकार असत्य बोलते ही उनके रथ के घोड़े धरती का स्पर्श करके चलने लगे। युधिष्ठिर के मुंह से यह वचन सुनकर महारथी द्रोणाचार्य पुत्र शोक से संतप्त हो अपने जीवन से निराश हो गये। अपने पुत्र के मारे जाने की बात सुनकर महर्षियों के कथनानुसार वे अपने आपको महात्मा पाण्डवों का अपराधी-सा मानने लगे। उनकी चेतना शक्ति लुप्त होने लगी। वे अत्यन्त उद्विग्न हो उठे। राजन! उस समय धृष्टद्युम्न को सामने देखकर भी शत्रुओं का दमन करने वाले द्रोणाचार्य पूर्ववत युद्ध न कर सके। इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणवधपर्व में युधिष्ठिर का असत्य भाषण विषयक एक सौ नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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