महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 117-138

चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 117-138 का हिन्दी अनुवाद

तब समस्त देवता, महर्षि तथा तीनों लोकों के प्राणी स्वस्थ हो गये। सबने श्रेष्ठ वचनों द्वारा अप्रतिम शक्तिशाली महादेव जी का स्तवन किया। फिर भगवान की आज्ञा लेकर अपने प्रयत्न से पूर्ण काम हुए प्रजापति आदि सम्पूर्ण देवता जैसे आये थे, वैसे चले गये। इस प्रकार देवताओं तथा असुरों के भी अध्यक्ष जगत स्रष्टा भगवान महेश्वर देव ने तीनों लोकों का कल्याण किया था। वहाँ विश्वविधाता सर्वोत्कृष्ट अविनाशी पितामह भगवान ब्रह्मा ने जिस प्रकार रुद्र का सारथि-कर्म किया था तथा जिस प्रकार उन पितामह ने रुद्रदेव के घोड़ों की बागडोर सँभाली थी, उसी प्रकार आप भी शीघ्र ही इस महामनस्वी राधापुत्र कर्ण के घोड़ों को काबू में कीजिये। नृपश्रेष्ठ! आप श्रीकृष्ण से, कर्ण से और अर्जुन से भी श्रेष्ठ हैं, इसमें कोई अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। यह कर्ण युद्धक्षेत्र में रुद्र के समान है और आप भी नीति में ब्रह्मा जी के तुल्य हैं; अतः आप उन असुरों की भाँति मेरे शत्रुओं को जीतने में समर्थ हैं। शल्य! आप शीघ्र ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे यह कर्ण उस श्वेतवाहन अर्जुन को, जिसके सारथि श्रीकृष्ण हैं? मथकर मार डाले। मद्रराज! आप पर ही मेरी राज्य प्राप्ति विषयक अभिलाषा और जीवन की आशा निर्भर है। आपके द्वारा कर्ण का सारथि कर्म सम्पादित होने पर जो आज विजय मिलने वाली है, उसकी सफलता भी आप पर ही निर्भर है। आप पर ही कर्ण, राज्य, हम और हमारी विजय प्रतिष्ठित हैं। इसलिये आज संग्राम में आप इन उत्तम घोड़ों को अपने वश में कीजिये।

राजन! आप मुझसे फिर यह दूसरा इतिहास भी सुनिये, जिसे एक धर्मज्ञ ब्राह्मण ने मेरे पिता के समीप कहा था। शल्य! कारण और कार्य से युक्त इस विचित्र ऐतिहासिक वार्ता को सुनकर आप अचछी तरह सोच-विचार लेने के पश्चात मेरा कार्य करें, इस विषय में आपके मन में कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिये। भार्गववंश में महायशस्वी महर्षि जमदग्नि प्रकट हुए थे, जिनके तेजस्वी और गुणवान पुत्र परशुराम के नाम से विख्यात हुए हैं। उन्होंने अस्त्र-प्राप्ति के लिये मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए प्रसन्न हृदय से भारी तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया। उनकी भक्ति और मनःसंयम से संतुष्ट हो सबका कल्याण करने वाले महादेव जी ने उनके मनोगत भाव को जानकर उन्हें अपने दिव्य शरीर का प्रत्यक्ष दर्शन कराया। महादेव जी बोले- 'राम! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम क्या चाहते हो, यह मुझे विदित है। अपने हृदय को शुद्ध करो। तुम्हें यह सब कुछ प्राप्त हो जायगा। जब तुम पवित्र हो जाओगे, तब तुम्हें अपने अस्त्र दूँगा, भृगुनन्दन! अपात्र और असमर्थ पुरुष को तो ये अस्त्र जलाकर भस्म कर डालते हैं। त्रिशूलधारी देवाधिदेव महादेव जी के ऐसा कहने पर जमदग्निनन्दन परशुराम ने उन महात्मा भगवान शिव को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- यदि आप देवेश्वर प्रभु मुझे अस्त्र धारण का पात्र समझें तभी मुझ सेवक को दिव्यास्त्र प्रदान करें।

दुर्योधन कहता है- तदनन्तर परशुराम ने बहुत वर्षों तक तपस्या, इन्द्रिय-संयम, मनोनिग्रह, पूजा, उपहार, भेंट, अर्पण, होम और मन्त्र-जप आदि साधनों द्वारा भगवान शिव की आराधना की। इससे महादेव जी महात्मा परशुराम पर प्रसन्न हो गये और उन्होंने पार्वती देवी के समीप उनके गुणों का बारंबार वर्णन किया- ‘ये दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले परशुराम मेरे प्रति सदा भक्तिभाव रखते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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