|
महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 53-70 का हिन्दी अनुवाद
- जो नष्ट हुए धन को स्थिर बुद्धि का आश्रय ले अच्छी नीति से पुन: लौटा लाने की इच्छा करता है, वह वीर पुरुषों का-सा आचरण करता है। (53)
- जो आने वाले दु:ख को रोकने का उपाय जानता है, वर्तमान कालिक कर्तव्य के पालन में दृढ़ निश्चय रखने वाला है और अतीतकाल में जो कर्तव्य शेष रह गया है, उसे भी जानता है, वह मनुष्य कभी अर्थ से हीन नहीं होता। (54)
- मनुष्य मन, वाणी और कर्म से जिसका निरन्तर सेवन करता है, वह कार्य उस पुरुष को अपनी ओर खींच लेता है। इसलिये सदा कल्याणकारी कार्यों को ही करे। (55)
- मांगलिक पदार्थों का स्पर्श, चित्तवृत्तियों का निरोध, शास्त्र का अभ्यास, उद्योगशील, सरलता और सत्पुरुषों का बारंबार दर्शन- ये सब कल्याणकारी हैं। (56)
- उद्योग में लगे रहना- उससे विरक्त न होना धन, लाभ और कल्याण का मूल है। इसलिये उद्योग न छोड़ने वाला मनुष्य महान हो जाता है और अनन्त सुख का उपभोग करता है। (57)
- तात! समर्थ पुरुष के लिये सब जगह और सब समय में क्षमा के समान हितकारक और अत्यन्त श्रीसम्पन्न बनाने वाला उपाय दूसरा नहीं माना गया है। (58)
- जो शक्तिहीन है, वह तो सब पर क्षमा करे ही; जो शक्तिमान है, वह भी धर्म के लिये क्षमा करे तथा जिसकी दृष्टि में अर्थ और अनर्थ दोनों समान हैं, उसके लिये तो क्षमा सदा ही हितकारिणी होती है। (59)
- जिस सुख का सेवन करते रहने पर भी मनुष्य धर्म और अर्थ से भ्रष्ट नहीं होता, उसका यथेष्ट सेवन करे; किंतु मूढव्रत[1] न करे। (60)
- जो दु:ख से पीड़ित, प्रमादी, नास्तिक, आलसी, अजितेन्द्रिय और उत्साह रहित हैं, उनके यहाँ लक्ष्मी का वास नहीं होता। (61)
- दुष्ट बुद्धि वाले लोग सरलता से युक्त और सरलता के ही कारण लज्जाशील मनुष्य को अशक्त मानकर उसका तिरस्कार करते हैं। (62)
- अत्यन्त श्रेष्ठ, अतिशय दानी, अतीव शूरवीर, अधिक व्रत-नियमों का पालन करने वाले और बुद्धि के घमंड में चूर रहने वाले मनुष्य के पास लक्ष्मी भय के मारे नहीं जाती। (63)
- लक्ष्मी न तो अत्यन्त गुणवानों के पास रहती है और न बहुत निर्गुणों के पास। यह न तो बहुत-से गुणों को चाहती है और न गुणहीन के प्रति ही अनुराग रखती है। उन्मत्त गौ की भाँति यह अन्धी लक्ष्मी कहीं-कहीं ही ठहरती है। (64)
- वेदों का फल है अग्निहोत्र करना, शास्त्राध्ययन का फल है सुशीलता और सदाचार, स्त्री का फल है रतिसुख और पुत्र की प्राप्ति तथा धन का फल है दान और उपभोग। (65)
- जो अधर्म के द्वारा कमाये हुए धन से परलौकिक कर्म करता है, वह मरने के पश्चात उसके फल को नहीं पाता; क्योंकि उसका धन बुरे रास्ते से आया होता है। (66)
- घोर जंगल में, दुर्गम मार्ग में, कठिन आपत्ति के समय, घबराहट में और प्रहार के लिये शस्त्र उठे रहने पर भी सत्त्व-सम्पन्न अर्थात आत्मबल से युक्त पुरुषों को भय नहीं होता। (67)
- उद्योग, संयम, दक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सोच-विचारकर कार्यारम्भ करना- इन्हें उन्नति का मूलमन्त्र समझिये। (68)
- तपस्वियों का बल है तप, वेदवेत्ताओं का बल है वेद,पापियों का बल है हिंसा और गुणवानों का बल है क्षमा। (69)
- जल, मूल, फल, दूध, घी, ब्राह्मण की इच्छापूर्ति, गुरु का वचन और औषध-ये आठ व्रत के नाशक नहीं होते। (70)
|
|