द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-60 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- निष्पाप देवेश्वर! जिनके भाव शुद्ध हों, वे पुण्यात्मा ब्राह्मण कैसे होते हैं तथा ब्राह्मण को अपने कर्म में सफलता न मिलने का क्या कारण है? यह बताने की कृपा कीजिये। श्रीभगवान ने कहा- पाण्डुनन्दन! ब्राह्मणों का कर्म क्यों सफल होता है और क्यों निष्फल- इन बातों को मैं क्रमश: बताता हूँ, सुनो। यदि हृदय का भाव शुद्ध न हो तो त्रिदण्ड धारण करना, मौन रहना, जटा रखाना, माथा मुडांना, वल्कल या मृगचर्म पहनना, व्रत और अभिषेक करना, अग्नि में आहुति देना, गृहस्थ-धर्म का पालन करना, स्वाध्याय में संलग्न रहना और अपनी स्त्री का सत्कार करना- ये सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं। जो क्षमाशील, दम का पालन करने वाला, क्रोधरहित तथा मन और इन्द्रियों को जीतने वाला हो, उसी को मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण मानता हूँ। उसके अतिरिक्त जो ब्राह्मण कहलाने वाले लोग हैं, वे सब शूद्र माने गये हैं। जो अग्निहोत्र, व्रत और स्वाध्याय में लगे रहने वाले, पवित्र, उपवास करने वाले और जितेन्द्रिय हैं, उन्हीं पुरुषों को देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। राजन! केवल जाति से किसी की पूजा नहीं होती, उत्तम गुण ही कल्याण करने वाले होते हैं। मन:शुद्धि, क्रियाशुद्धि, कुलशुद्धि, शरीरशुद्धि और वाक्-शुद्धि- इस तरह पांच प्रकार की शुद्धि बतायी गयी हैं। इन पांचों शुद्धियों में हृदय की सबसे बढ़कर हैं। हृदय की ही शुद्धि से मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं। जो ब्राह्मण अग्निहोत्र का त्याग करके खरीद-बिक्री में लग गया है, वह वर्णसंकरता का प्रचार करने वाला और शूद्र के समान माना गया है। कुन्तीनन्दन! जिसने वैदिक श्रुतियों को भुला दिया है तथा जो खेत में हल जोतता है, अपने वर्ण के विरुद्ध काम करने वाला वह ब्राह्मण वृषल माना गया है। वृष शब्द का अर्थ है धर्म: उसका जो लय करता है, उसको देवता लोग वृषल मानते हैं। वह चाण्डाल से भी नीच होता है। जो पापात्मा मनुष्य ब्रह्मगीता आदि के द्वारा मेरी स्तुति न करके किसी शूद्र का स्तवन करता है, वह चाण्डाल के समान है। जैसे कुत्ते की खाल में रखा हुआ दूध और कुत्ते का चाटा हुआ हविष्य अशुद्ध होता है, उसी प्रकार वृषल मनुष्य की बुद्धि में स्थित वेद भी दूषित हो जाता है। चार वेद, छ: अंग, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र और पुराण-ये चौदह विद्याएं हैं। भरतनन्दन! मैंने जो विद्या के चौदह पवित्र स्थान पूर्णतया बताये हैं, वे तीनों लोकों के कल्याण के लिये प्रकट हुए हैं। अत: शूद्र को इनका स्पर्श नहीं करना चाहिये। युधिष्ठिर! शूद्र के सम्पर्क में आने वाली सभी वस्तुएं अपवित्र हो जाती हैं, इसमें संशय नहीं है। भारत! इस संसार में तीन अपवित्र और पांच अमेध्य हैं। पाण्डुनन्दन! कुत्ता, शूद्र और श्वपाक (चाण्डाल)- ये तीन अपवित्र होते हैं। तथा अश्लील गायक, मुर्गा, जिसमें वध करने के लिये पशुओं को बांधा जाये वह खम्भा, रजस्वला स्त्री और वृषल जाति की स्त्री से ब्याह करने वाला द्विज- ये पांच अमेध्य माने गये हैं, इनका कभी भी स्पर्श नहीं करना चाहिये। यदि ब्राह्मण इन आठों में से किसी का स्पर्श कर ले तो वस्त्र सहित जल में प्रवेश करके स्नान करें। जो मनुष्य मेरे भक्तों का शूद्र-जाति में जन्म होने के कारण अपमाण करते हैं, वे नराधम करोड़ों वर्ष तक नरकों में निवास करते हैं। अत: चाण्डाल भी यदि मेरा भक्त हो तो बुद्धिमान पुरुष को उसका अपमान नहीं करना चाहिये। अपमान करने से मनुष्य को रौरव नरक में गिरना पड़ता है। जो मनुष्य मेरे भक्तों के भक्त होते हैं, उन पर मेरा विशेष प्रेम होता है, इसलिये मेरे भक्त के भक्तों का विशेष सत्कार करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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