दशम (10) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: दशम अध्याय: श्लोक 28-37 का हिन्दी अनुवाद
तत्पश्चात इन्द्र तथा सोमपान के अधिकारी अन्य देवताओं ने उत्तम सोमरस का पान किया। इससे सबको तृप्ति एंव प्रसन्नता हुई। फिर सब देवता राजा मरुत्त की अनुमति लेकर अपने-अपने स्थान को चले गये। तदनन्तर शत्रुहन्ता राजा मरुत्त बड़े हर्ष के साथ वहाँ ब्राह्मणों को बहुत-से धन का दान करते हुए उनके लिये पग-पग पर सुवर्ण के ढेर लगवा दिये। उस समय धनाध्यक्ष कुबेर के समान उनकी शोभा हो रही थी इसके बाद ब्राह्मणों के ले जाने से जो नाना प्रकार का धन बच गया, उसको मरुत्त ने उत्साहपूर्वक कोष-स्थान बनवाकर उसी में जमा कर दिया। फिर अपने गुरु सवंर्त की आज्ञा लेकर वे राजधानी को लौट आये और समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का राज्य करने लगे। नरेन्द्र! राजा मरुत्त ऐसे प्रभावशाली हुए थे। उनके यज्ञ में बहुत-सा सुवर्ण एकत्र किया गया था। तुम उसी धन को मँगवाकर यज्ञ भाग से देवताओं को तृप्त करते हुए यजन करो। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सत्यवतीनन्दन व्यास जी के ये वचन सुनकर पाण्डुकुमार राजा युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उस धन के द्वारा यज्ञ करने का विचार किया तथा इस विषय में मंत्रियों के साथ बारंबार मंत्रणा की।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अश्वमेधपर्व में संवर्त और मरुत्त का उपाख्यानविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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