महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 66 श्लोक 20-29

षट्षष्टितम (66) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

Prev.png

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद


‘मेरे और पाण्डवों के प्राण इस बालक के ही अधीन है। दशार्हकुलनन्दन! मेरे पति पाण्डु तथा श्वसुर विचित्रवीर्य के पिण्ड का भी यही सहारा है। जनार्दन! तुम्हारा कल्याण हो। जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय और तुम्हारे ही समान परम सुन्दर था, उस परलोकवासी अभिमन्यु का भी प्रिय करो- उसके इस बालक को जिला दो।

शत्रुसूदन श्रीकृष्ण! मेरी बहुरानी उत्तरा अभिमन्यु की पहले की कही हुई एक बात अत्यन्त प्रिय होने के कारण बार-बार दुहराया करती है। उस बात की यथार्थ में तनिक भी संदेह नहीं है। दाशार्ह! अभिमन्यु ने उत्तरा से कभी स्नेहवश कहा था- "कल्याणी! तुम्हारा पुत्र मेरे मामा के यहाँ जाएगा- वृष्णि एवं अन्धकों के कुल में जाकर धनुर्वेद, नाना प्रकार के विचित्र अस्त्र-शस्त्र तथा विशुद्ध नीतिशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करेगा"।

तात! शत्रुवीरों का संहार करने वाले दुर्धर्ष वीर सुभद्राकुमार ने जो प्रेमपूर्वक यह बात कही थी, यह निस्संदेह सत्य होनी चाहिए। मधुसूदन! इस कुल की भलाई के लिये हम सब लोग तुम्हारे पैरों पड़कर भीख माँगती हैं, इस बालक को जिलाकर तुम कुरुकुल का सर्वोत्तम कल्याण करों।’ श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर विशाललोचना कुन्ती दोनों बाँहें ऊपर उठाकर दु:ख से आर्त हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। स्त्रियों की भी यही दशा हुई। समर्थ महाराज! उन सबकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी और वे सभी रो-रोकर कह रही थीं कि ‘हाय! श्रीकृष्ण के भानजे का बालक मरा हुआ पैदा हुआ।' भरतनन्दन! उन सबके ऐसा कहने पर जनार्दन श्रीकृष्ण ने कुन्तीदेवी को सहारा देकर बैठाया और पृथ्वी पर पड़ी हुई अपनी बुआ को वे सांत्वना देने लगे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में परीक्षित के जन्म का वर्णनविषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः